चर्च के विषय में प्रश्न

चर्च के विषय में प्रश्न

चर्च (कलिसिया) क्या है?

चर्च (कलिसिया) का क्या उदेश्य है?

क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?

प्रभु भोज/ मसीही संगति का क्या महत्त्व है?

चर्च (कलिसिया) में उपस्थिति होना क्यों महत्वपूर्ण है?

सब्त किस दिन होता है, शनिवार या रविवार? क्या मसीही लोगों को सब्त का दिन मानना चाहिए?

मैं संगठित धर्म में क्यो विश्वास करू?

क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?



चर्च के विषय में प्रश्न    
 

चर्च (कलिसिया) क्या है?


प्रश्न: चर्च (कलिसिया) क्या है?

उत्तर:
बहुत से लोग आज चर्च (कलिसिया) को एक इमारत समझते हैं । यह चर्च (कलिसिया) की बाइबल के अनुसार की समझ नहीं है। ‘‘चर्च’’ शब्द युनानी शब्द एकलिसिया से आता है जिसकी परिभाषा ‘‘एक मण्डली’’ या ‘‘बुलाए गए’’ है। ‘‘चर्च’’ के मूल अर्थ का सम्बन्ध इमारत से नहीं, बल्कि लोगों से है। यह विण्डम्बना है कि जब आप लोगो से पूछते है कि वह किस चर्च में जाते हैं, तो वह अकसर किसी इमारत के बारे मे बताते है । रामियो 16:5 कहता है ‘‘....................उनके घर में एकत्र होने वाली कलिसिया को भी नमस्कार।’’ पोलुस उनके घर में चर्च (कलिसिया) के बारे में बात करता है- चर्च (कलिसिया) की इमारत के विषय में नहीं, परन्तु विश्वासियां के समुह के लिए ।

चर्च (कलिसिया) मसीह की देह है, जिसका वह सिर है। इफिसियो 1:22-23 कहता है कि, ‘‘परमेश्वर ने सब कुछ मसीह के चरणों के तले रखा और उसे सब पर शिरोमणि नियुक्त कर कलिसिया को दे दिया । यह कलिसिया मसीह की देह है, मसीह की परिपूर्णता है, जो सब में सब कुछ पूर्ण करता हैं’’ । पैन्तिकुस्त के दिन से (प्रेरितो के काम अध्याय 2) मसीह की देह सब विश्वासीयो से बनी है मसीह के पुन आगमन तक । मसीह की देह में दो पहलू सम्मिलित है:

1)सार्वभौमिक चर्च (कलिसिया) में वे सम्मिलित है जिन का यीशु मसीह के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध है। ‘‘ हम यहूदी हो या यूनानी, गुलाम हो या स्वतन्त्र - हम सब ने एक आत्मा द्वारा एक देह में बपतिस्मा लिया है। हम सबने एक ही आत्मा का पान किया है’’ (कुरिन्थियों 12:13) यह पद कहता है कि जो कोई विश्वास करता है वह मसीह की देह का भाग है और प्रमाण के रूप में मसीह की आत्मा पाई है। परमेश्वर का सार्वभौमिक चर्च (कलिसिया) वह है जिन्होने यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा उद्धार पाया है।

2)गलातियो 1:1-2: में स्थानीय चर्च (कलिसिया) का विवरण किया है: ‘‘मुझ पोलुस और सब भाईयों की और से जो मेरे साथ है, गलातियो प्रदेश की कलिसियाओ..............’’। हम यहाँ देखते हैं कि गलातिया प्रदेश में कई चर्च (कलिसियाए) थी - जिसे हम स्थानीय चर्च (कलिसियाए) कहते है। बैपटिस्ट चर्च (कलिसिया) लूदरन चर्च (कलिसिया), कैथोलीक चर्च (कलिसिया) आदि, सार्वभौमिक चर्च नहीं है- बल्कि स्थानीय चर्च (कलिसिया) है, विश्वासीयो का एक स्थानीय समूह । सार्वभौमिक चर्च (कलिसिया) में वे सम्मिलित है जो मसीह के जन है और उस पर उद्धार के लिए विश्वास करते हैं। इस सार्वभौमिक चर्च (कलिसिया) के सदस्यों को स्थानीय चर्च (कलिसिया) में संगति और उाति के लिए जाना चाहिए ।

सन्क्षेप में, चर्च (कलिसिया) कोई इमारत या कोई सम्प्रदाय (डीनोमीनशेन) नहीं है। बाइबल के अनुसार चर्च (कलिसिया) मसीह की देह है वह सब जिन्होने यीशु मसीह पर उद्धार के लिए विश्वास किया है (यूहत्रा 3:16, 1कुरिन्थियो 12:13) । स्थानीय चर्च (कलिसिया) सार्वभौमिक चर्च (कलिसिया) के सदस्यो की संगति है। स्थानीय चर्च (कलिसिया) वह है जहाँ सार्वभौमिक चर्च (कलिसिया) के सदस्य 1 कुरिन्थियो अध्याय 12 मे ‘‘देह’’ के लिए नियम: उत्साहित करना, शिक्षा देना, और प्रभु यीशु मसीह के ज्ञान और अनुग्रह में एक दूसरे की उाति करने को पूर्णतया व्यवहार में ला सकते है।



चर्च (कलिसिया) क्या है?    
 

चर्च (कलिसिया) का क्या उदेश्य है?


प्रश्न: चर्च (कलिसिया) का क्या उदेश्य है?

उत्तर:
प्रेरितो के काम 2:42 को चर्च (कलिसिया) के उदेश्य का कथन माना जा सकता है ’’और वे प्रेरितो से शिक्षा पाने, और संगति रखने; और रोटी तोडने; और प्रार्थना करने में लौलीन रहे। ’’ इस वचन के अनुसार, चर्च (कलिसिया) का उदेश्य/कार्ये 1) बाइबल की शिक्षा देना 2) विश्वासीयो की संगति के लिए स्थान उपलब्द कराना 3) प्रभुभोज को अनुसरण करना 4) प्रार्थना करना होना चाहिए ।

चर्च (कलिसिया) को बाइबल की शिक्षा को सिखाना चाहिए जिससे की हम अपने विश्वास में बने रहे। इफिसियों 4:14 हमे बताता है, “ताकि हम आगे को बालक न रहे जो मनुष्यों की ठग -विद्या और चतुराई से, उनके भ्रम की युक्तियों के और उपदेश के हर एक झोके से उछाले और इधर-उधर धुमाए जाते हों।’’ चर्च (कलिसिया) एक संगति का स्थान होचा चाहिए जहाँ मसीह जन एक दूसरे को समर्पित हो और एक दुसरे का आदर करे (रोमिया 12:10) एक दूसरे को चिताए (रोमियो 15:14) एक दूसरे के प्रति दयालु और करूणामय हो (इफिसियो 4:32) एक दूसरे को उत्साहित करे(1थिस्सलुनिकियो) और सबसे महत्वपूर्ण, एक दूसरे से प्रेम करे । (1 यूहन्ना 3:11)।

चर्च (कलिसिया)वह स्थान होना चाहिए । जहाँ विश्वासी प्रभुभोज का मसीह की मृत्यु और उसका हमारे स्थान पर लहू बहाने को स्मरण करते हुए अनुसरण करें,। (1 कुरिन्थियों 11:23-26) । ’’रोटी तोड़ने’’ का विचार (प्रेरितो के काम 2:42) साथ भोजन करने के विचार को भी साथ लिए है। यह चर्च का संगति को बढावा देने का एक और उदाहरण है। प्रेरितो के काम 2:42 के अनुसार कलिसिया का अन्तिम उदेश्य प्रार्थना है। कलिसिया वह स्थान होना चाहिए जो प्रार्थना करने को बढावा देता है, प्रार्थना सिखाता है, और प्रार्थना करने का अनुसरण करता है। फिलिप्पियों 4:6-7 हमें उत्साहित करता है कि, ’’किसी भी बात की चिन्ता मत करो; परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती, के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित किए जाए । तब परमेश्वर की शान्ति, जो सारी समझ से परे हैं, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु ने सुरक्षित रखेगी ’’ ।

एक अन्य दायित्व जो कलिसिया को दिया गया वह है यीशु मसीह के द्वारा उद्वार के सुसमाचार का प्रचार करना (मत्ती 28:18-20; प्रेरितो के काम 1:8)। कलिसियाँ को विश्वासयोग्यता से वचन और कार्यो के द्वारा सुसमाचार को बाँटने के लिए बुलाया गया है। कालिसिया को समुदाय में एक प्रकाश स्तम्ब के समान होना चाहिए, जो लोगों को प्रभु और उद्धारकर्ता यीशु मसीह की और मार्गदर्शित करें । कालिसिया को सुसमाचार का प्रचार और अपने सदस्यों को तैयार दोनों करना चाहिए ( 1 पतरस 3:15)

कलिसिया के कुछ अन्तिम उदेश्य याकूब 1:27 में दिये गए है: ‘‘हमारे परमेश्वर और पिता के निकट शुद्ध और निर्मल भक्ति यह है कि अनाथो और विधावाओ के कलेश में उसका सुधि ले, और अपने आप को संसार से निष्कलंक रखे’’। कलिसिया को जरूरतमन्दों की सेवकाई के कार्य में लगे होना चाहिए। इसमें से केवल सुसमाचार को बाँटना ही सम्मिलित नहीं है बल्कि शारीरिक आवश्यकताओं (खाना, कपडा, आवास) को उपलब्द कराना भी आवश्यक और उचित है। कलिसिया को मसीह में विश्वासीयों को पाप से बचने और संसार को गन्दगी से अलग रहने के लिए जो सामग्री आवश्यक है उसे भी उपलब्ध कराना है। यह बाइबल की शिक्षा देने और मसीह संगति से होता है, ता कलिसिया का उदेश्य क्या है ? पोलुस ने कुरिन्थि के विश्वासीयों को उत्तम उदाहरण दिया । चर्च (कलिसिया) संसार में परमेश्वर के हाथ, मुँह और पाँव है मसीह की देह ( 1 कुरिन्थियो 12:12:27)। हमको वह बाते करते होना चाहिए जो यीशु मसीह इस पृथ्वी पर यदि देह मे उपस्थित होते तो करते। चर्च (कलिसिया) को ‘‘मसीही’, ‘‘मसीह के सदृश्य’’, और मसीह के अनुसरण करने वाले होना चाहिए ।



चर्च (कलिसिया) का क्या उदेश्य है?    
 

क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?


प्रश्न: क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?

उत्तर:
क्रिश्चियन नामकरण संस्कार, बाइबल के अनुसार, एक विश्वासी के आंतरिक जीवन में घटित घटनाओं का बाह्य साक्ष्य है । क्रिश्चियन नामकरण संस्कार एक विश्वासी की पहचान को यीशु की मृत्यु, गाड़े जाने, तथा पुनरुत्थान के साथ समझाता है । बाइबल द्घोषणा करती है, "क्या तुम नहीं जानते, कि हम जितनों ने मसीह यीशु का नामकरण संस्कार लिया, तो उसकी मृत्यु का नामकरण संस्कार लिया? सो उस मृत्यु का नामकरण संस्कार पाने से हम उसके साथ गाड़े गए, ताकि जैसे मसीह पिता की महिमा के द्वारा मरे हुओं में से जिलाया गया, वैसे ही हम भी नए जीवन की तरह जीयें" (रोमियो ६:३-४) क्रिश्चियन बपतिस्में में पानी में डुबकी लगाने की क्रिया मसीह के साथ गाड़े जाने को दर्शाना है । पानी से बाहर निकलने की क्रिया मसीह का पुनरुत्थान दर्शाती है ।

क्रिश्चियन नामकरण संस्कार में, बपतिस्में से पहले एक व्यक्ति में दो आवश्यकायें को पूरा करना चाहियें : (१) नामकरण संस्कार लेने वाले व्यक्ति को यीशु मसीह पर अपने उद्धारकर्ता के रूप में भरोसा करना चाहिये, तथा (२) व्यक्ति को यह समझना चाहिये कि नामकरण संस्कार किस बात का प्रतीक होता है । अगर व्यक्ति प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता के रूप में जानता है, यह समझता है कि क्रिश्चियन नामकरण संस्कार सार्वजनिक तरीके से मसीह में उसके विश्वास का ऐलान करते हुए आज्ञाकारिता का एक कदम है, तथा नामकरण संस्कार पाने की इच्छा रखता है-तो फिर कोई कारण नहीं है कि उसको नामकरण संस्कार दिये जाने से रोका जा सके । बाइबल के अनुसार, क्रिश्चियन नामकरण संस्कार साधारणतया आज्ञाकारिता का एक कदम है, एक व्यक्ति के उद्धार के लिये केवल मसीह में विश्वास का सार्वजनिक ऐलान है । क्रिश्चियन नामकरण संस्कार महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आज्ञाकारिता का एक कदम है, सार्वजनिक रूप से मसीह में भरोसा तथा उसके प्रति प्रतिबद्धता तथा मसीह की मृत्यु, गाड़े जाने, तथा पुनरुत्थान की पहचान की घोषणा करके ।



क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?    
 

प्रभु भोज/ मसीही संगति का क्या महत्त्व है?


प्रश्न: प्रभु भोज/ मसीही संगति का क्या महत्त्व है?

उत्तर:
प्रभु भोज के अर्थ में जो गहराई है उसके कारण इसका अध्यन आत्मा को एक झनझोडने वाला अनुभव है । फसह का सदियों पुराना उत्सव मनाये जाने के दोरान यीशु ने अपनी मृत्यु की पूर्व संधया को एक विशेष नयी संगति भोज का स्थापित किया जिसे हम आज के दिन तक मनाते है। यह मसीह अराधना का एक अभिन्न अंग है। यह हमे हमारे प्रभु की मृत्यु और पुनरूत्थान और भविष्य में उसके महिमा के साथ वापस आने की बाट जोहने के विषय मे स्मरण कराता है।

यहूदी धार्मिक वर्ष का सबसे पवित्र पर्व फसह था। यह मिस्त्र पर अन्तिम विपत्ति का स्मरण दिलाता है जब मिस्त्रीयों के पहिलोठे मर गए थे और इस्त्राएलियों को छोड दिया गया था मेमने के उस लहू के कारण जो उनके द्वार के चौखट के सिरे और दोनो अंलगो पर छिडका गया था । फिर मेमने को भुना और अखमीरी रोटी के साथ खाया गया । परमेश्वर की आज्ञा यह थी कि आनेवाली सब पीढियों में यह पर्व मनाया जाए । यह कहानी निर्गमन 12 में लिखी है।

अन्तिम भोज के दोरान-फसह के पर्व का मनाया जाना - यीशु ने रोटी को लिया और परमेश्वर को धन्यवाद दिया । जब उसने उसे तोडा और अपने शिष्यों को दिया, उसने कहा, ‘‘यह मेरी देह है जो तुम्हारे लिये दी जाती है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो। ’’ इसी रीति से उसने भोजन के बाद कटोरा भी यह कहते हुए दिया; कि ‘‘यह कटोरा मेरे उस लहू में जो तुम्हारे लिये बहाया जाता है नई वाचा है’’। (लूका 22:19-21) । उसने एक भजन गा कर पर्व का समापन किया (मत्ती 26:30), और वह रात्रि मे जैतून के पहाड पर चले गए। यही पर यहूदा के द्वारा, यीशु का विश्वासघात किया गया जैसे कि पहले बताया गया था। अगले दिन उसे क्रूस पर चढा दिया गया।

प्रभू भोज के विवरण सुसमाचार की पुस्तको में पाए जाते हैं (मत्ती 26: 26-29) मरकुस 14:17-25 लुका 22:7-22; और यूहाा 13:21-30)। प्रेरित पौलुस ने 1 कुरिन्थियों में 11:23-29 में प्रभु भोज के विषय में लिखा । पौलुस एक कथन को सम्मिलित करता है जो कि सुसमाचार की पुस्तको में नहीं पाया जाता : ‘‘इसलिये जो कोई अनुचित रीति से प्रभु की रोटी खाए या उसके कटोरे में से पीए, वह प्रभु की देह और लहू का अपराधी ठहरेगा । इसलिए मनुष्य अपने आप का जाँच ले और इसी रीति से इस रोटी में से खाए, और इस कटोरे मे से पीए । क्योकि जो खाते - पीते समय प्रभु की देह को न पहचाने, वह इस खाने और पीने से अपने ऊपर दण्ड लाता है’’ (1 कुरिन्थियो 11:27-29)। हम पुछ सकते है कि रोटी और कटोरे में ‘‘अनुचित रीत्ति से’’ सहभागिता करने से क्या अर्थ है। इस का अर्थ यह हो सकता है कि रोटी और कटोरे का जो वास्तविक अर्थ है उसकी उपेक्षा करना और जो बहुत बडी कीमत हमारे उद्धारकर्ता ने हमारे उद्धार के लिए अदा की है उसको भुला देना। या इसका अर्थ यह हो सकता है कि इस अयोजन को मृत और औपचारिक प्रथा बना देना या प्रभु भोज में अंगीकार न किए गए पाप के साथ सहभागिता करना । पौलुस की चितौनी के अनुसार चलते हुए, हमे पहले अपने आप को जाँचना चाहिए और इसी रीति से रोटी मे से खाए और कटोरे मे से पीए ।

एक और कथन पौलुस कहता है जो सुसमाचार की पुस्तको के विवरणों में सम्मलित नहीं है कि ‘‘ क्योकि जब कभी तुम यह रोटी खाते और इस कटोरे में से पीते हो, तो प्रभु की मृत्यु को जब तक वह न आए, प्रचार करते हो ’’ (1 कुरिन्थियो 11:26)। यह इस अयोजन पर एक समय सीमा लगा देता है - जब तक हमारा प्रभु न आए। इन संक्षिप्त विवरणो से हम सिखते है कि कैसे यीशु बहुत नाजुक तत्वों में से दो का उपयोग अपनी देह और लहू का प्रतीक होने के लिए करते है और उनका आरम्भ अपने स्मारक के रूप मे करते है । यह स्मारक किसी नक्काशी किए हुए संगमरमर या साँचे में ढाले गए हुए पितल का नही, बल्कि रोटी और दाखरस का था ।

उसने घोषित किया कि रोटी उसकी देह का प्रतीक है जो कि तोडी जाएगी। तोडी गई हुई कोई हड्डी नहीं थी, परन्तु उसको इतनी बुरी तरह से यातना दी गई थी कि उसको पहचान पाना कठिन था (भजन सहिता 22:12-17; यशायाह 53:4-7) । दाखरस उसके लहू का प्रतीक है, जो संकेत करता है उस भयानक मृत्यु का जो उसे दी जाएगी। वह, परमेश्वर का सिद्ध पुत्र, पुराने नियम में एक छुटकारा दिलाने वाले के विषय में की गई अनगिनत भविष्यवाणीयों का पूरा करने वाला बना (भजन सहिता 22; यशायाह 53) । जब उसने कहा, ‘‘यह मेरे स्मरण में किया करो’’, उसने संकेत दिया कि इस रस्म को भविष्य में भी जारी रखा जाए। यह इसका संकेत भी देता था कि फसह जिसमें एक मेमने का मारा जाना आवश्यक होता था और जो उस परमेश्वर के मेमने के आगमन की बाट जोहता था जो कि संसार के पाप को उठा ले जाएगा , प्रभु भोज में पूरा हुआ । नई वाचा ने पुरानी वाचा का स्थान ले लिया जब मसीह फसह का मेमना (1 कुरिन्थियो 5:7) बलिदान किया गया (इब्रानियों 8:8-13)। बलिदान की व्यवस्था की अब आगे और आवश्यकता नहीं थी (इब्रानियो 9:25-28) । प्रभु-भोज/ मसीह संगति उसको स्मरण करना है जो मसीह ने हमारे लिए किया और उसका आनन्द मनाना है जो हम उसके बलिदान के परिणाम स्वरूप प्राप्त करते है।



प्रभु भोज/ मसीही संगति का क्या महत्त्व है?    
 

चर्च (कलिसिया) में उपस्थिति होना क्यों महत्वपूर्ण है?


प्रश्न: चर्च (कलिसिया) में उपस्थिति होना क्यों महत्वपूर्ण है?

उत्तर:
बाइबल हमे बताती है कि हमे चर्च (कलिसिया) में इसलिए उपस्थिति होने की आवश्यकता है जिससे कि हम अन्य विश्वासियों के साथ मिलकर परमेश्वर की अराधना कर सके और हमारी आत्मिक उाति के लिए उसके वचन को सिखाया जा सके (प्रेरितो के काम 2:42; इब्रानियों 10:25)/चर्च (कलिसिया) वह स्थान है जहाँ विश्वासी लोग एक दूसरे को प्रेम करें (इब्रानियो 3:13), एक दूसरे को भले कामों के लिए ‘‘उकसाए’’ (इब्रानिया 10:24), एक दूसरे की सेवा करे (गलातियो 5:13) एक दूसरे को चिताए (रोमियो 15:14), एक दूसरे का आदर करे (रोमियो 12:10), और एक दूसरे के प्रति दयावान और कृपालु बने (इफिसियो 4:32)।

जब कोई व्यक्ति यीशु मसीह पर उद्धार के लिए भरोसा करता है, वह जन मसीह की देह का अंग बन जाता है ( 1 कुरिन्थियों 12:27)। कलिसिया को यदि ठीक रीति से कार्य करना है, तो उसकी ‘‘देह के सभी अंगों’’ को उपस्थित होने की आवश्कता है (कुरिन्थियो 12:14-20)। ऐसे ही एक विश्वासी जन अन्य विश्वासीयों की सहायता और प्रोत्साहन के बिना अपनी सम्पूर्ण परिपक्वता को प्राप्त नहीं कर सकता है (1 कुरिन्थियों 12:21-36) । इन कारणों से, चर्च में उपस्थिति, भाग लेना, और संगति विश्वासी के जीवन का एक नित्य रहने वाला पहलु होना चाहिए । हालांकि साप्ताहिक चर्च (कलिसिया) में उपस्थिति किसी भी अर्थ से विश्वासी के लिए ‘‘जरूरी’’ नहीं है, परन्तु जो कोई मसीह का है उस में परमेश्वर की उपासना करने, उसके वचन को ग्रहण करने और अन्य विश्वासी जनों के साथ संगति करने की इच्छा होनी चाहिए ।



चर्च (कलिसिया) में उपस्थिति होना क्यों महत्वपूर्ण है?    
 

सब्त किस दिन होता है, शनिवार या रविवार? क्या मसीही लोगों को सब्त का दिन मानना चाहिए?


प्रश्न: सब्त किस दिन होता है, शनिवार या रविवार? क्या मसीही लोगों को सब्त का दिन मानना चाहिए?

उत्तर:
निर्गमन 20:11 में सब्त और सृष्टि के बीच सम्बन्ध होने के कारण यह अधिकतर माना जाता है कि ‘‘परमेश्वर ने सब्त को अदन में स्थापित किया’’ । यद्यपि सातवे दिन परमेश्वर का विश्राम करना (उत्पत्ति 2:3) भविष्य में सब्त के नियम को दिये जाने का पूर्व संकेत था, पर बाईबल में इस्त्राएल की संतानों का मिस्त्र देश को छोडने से पहले कोई सब्त का लिखित वर्णन नहीं पाया जाता है। धर्मशास्त्र में कही पर भी कोई संकेत नहीं है कि सब्त को आदम से लेकर मूसा तक माना जाता था।

परमेश्वर का वचन यह बहुत स्पष्ट करता है कि सब्त का दिन परमेश्वर और इस्त्राएल के मध्य एक विशेष चिन्ह था: ‘‘इसलिए इस्त्राएल विश्राम दिन का मानना है, वरन पीढी से पीढी तक उसको सदा की वाचा जानकर माना करे। वह मेरे और इसराएलीयों के बीच सदा एक चिन्ह रहेगा, क्योंकि छ: दिन में यहोवा ने आकाश और पृथ्वी को बनाया, और सातवे दिन विश्राम करके अपना जी ठण्डा किया’’ (निर्गमन 31:16:17)

व्यवस्थाविवरण 5 में, मुसा इस्त्राएलीयों की अगली पीढी को दस आज्ञाए दोहराता है। यहाँ, 12-14 वचनों में सब्त को मानने की आज्ञा देने के बाद, मूसा इस्त्राएल के राष्ट्र को सब्त के दिये जाने का कारण देता है ‘‘और इस बात का स्मरण रखना कि मिस्त्र देश में तू आप दास था, और वहाँ से तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे बलवन्त हाथ और बढाई हुई भुजा के द्वारा निकाल लाया, इस कारण तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे विश्राम दिन मानने की आज्ञा देता है’’ (व्यवस्था विवरण 5:15)

इस्त्राएल को सब्त के दिये जाने से परमेश्वर की मंशा यह नहीं थी कि वह सृष्टि को स्मरण रखेंगे, परन्तु यह कि वह अपने मिस्त्र की दासत्व और प्रभु द्वारा छुटकारे दिलाए जाने को स्मरण रखेंगे । सब्त को मनाने के लिए क्या जरूरी था: जो व्यक्ति सब्त के नियम के अधिन होता था सब्त में अपने स्थान से बाहर नहीं जा सकता था (निगर्मन 16:29) वह आग नही जला सकता था (निगर्मन 35:3) और न वह किसी दुसरे से भी कार्य करवा सकता था (व्यवस्था विवरण 5:14) । जो व्यक्ति सब्त का उलंधन करता था । उसको मार डाला जाता था (निगर्मन 31:15 गिनती 15:32-35)।

नये नियम के लेखों की निरिक्षण करने से हमें चार महत्त्वपूर्ण बाते दिखाई पड़ती है 1) जब कभी मसीह अपने पुनरूत्थान वाले रूप में प्रगट हुए और दिन बताया गया, तो वह हमेशा सप्ताह का पहला दिन होता था (मत्ती 28:1,9,10; मरकुस 16:9; लूका 24:1, 13, 15; यूहत्रा 20:19, 21)। प्रेरितो के काम से प्रकाशित वाक्य तक जिस एक बार सब्त का वर्णन हुआ वह यहूदियो में सुसमाचार प्रचार के उदेश्यों से है और अनेक बार यहूदियो के आराधनालय में का दृश्य होता (प्ररितो के काम अध्याय 13-18)। पौलुस लिखते है, ‘‘मैं यहूदियों के लिए यहूदी बना कि यहूदियों को खीच लाऊँ’’ (1कुरिन्थियों 9:20)। पौलुस यहूदियो के आराधनालय में इसलिए नही गया कि संगति करे और संतो की उाति हो, परन्तु इसलिए कि खोए हुओ को कायल किया जाए और बचाया जाए । 3)एक बार पौलुस कहते है, कि ‘‘अब से मैं अन्य जातियों के पास जाऊगा’’ (प्रेरितो के काम 18:6), इसके उपरान्त सब्त का फिर कही वर्णन नहीं होता है। और 4) सब्त के दिन से जुडे रहने के स्थान पर नये नियम का शेष भाग इसके विपरीत सुझाव करता है (3 वाक्य के एक अपवाद को छोड़ तथा अन्य स्थान में जो कुलुस्सियो 2:16 में मिलता है)

चौथे वाक्य को यदि और अधिक पास से देखा जाए तो यह प्रगट करता है कि नये नियम के विश्वासियों पर सब्त को मानने की कोई बाध्यता नहीं थी, और यह भी प्रतीत होता है कि रविवार ‘‘मसीही सब्त’’ का विचार भी धर्मशास्त्र की शिक्ष के अनुकूल नही है। जैसे उपरोक्त स्थान पर विचार-विमर्श किया गया, पौलुस का अन्यजातियों पर केन्द्रित होना आरम्भ करने के बाद सब्त का केवल एक ही बार उल्लेख हुआ है, ‘‘इसलिए खाने -पाने या पर्व या नए चाँद, या सब्त के विषय में तुम्हारा कोई फैसला न करें । क्योंकि ये सब आने वाली बातो की छाया है पर मूल वस्तुएँ मसीह की है’’ (कुलुस्सियो 2:16-17)। यहूदी सब्त का क्रूस पर समापन हो गया जहाँ मसीह ने ‘‘और विधियों को वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिला डाला’’ (कुलुस्सियो 2:14)।

यह विचार नये नियम में एक बार से अधिक दोहराया गया है: ‘‘कोई तो एक दिन को दूसरे से बढकर मानता है, और कोई सब दिनो को एक समान मानता है। हर एक अपने ही मन के निश्चय कर ले। जो किसी दिन को मानता है, वह प्रभु के लिये मानता है’’ (रोमियो 14:15-16a)। ‘‘पर अब जो तुम ने परमेश्वर को पहचान लिया वरन परमेश्वर ने तुम को पहचाना, तो उन निर्बल और निकम्मी आदि शिक्षा की बातों की और क्यो फिरते हो, जिनके तुम दोबारा दास होना चाहते हो ? तुम दिनो और महीनों और नियत समयो और वर्षा से मानते हो” (गलातियो 4:9-10)।

परन्तु कुछ एक मानते हैं कि 321 ईसवी में कोन्सटेन्टाइन के आदेश पर सब्त को शनिवार से रविवार में बदल डाला गया । पहला चर्च (कलिसिया) किस दिन आराधना के लिए इकठ्ठा होते थे? धर्मशास्त्र विश्वासीयो का सब्त (शनिवार) के दिन संगति और आराधना के लिए एकत्र होने का कभी भी उलेख नहीं करता है। यद्यपि, कई स्पष्ट अंश है जो सप्ताह के पहले दिन का उल्लेख करते है। उदाहरण के लिए, प्रेरितो के काम 20:7 अभिव्यक्त करता है कि ‘‘सप्ताह के पहले दिन जब हम रोटी तोडने के लिए इकटठे हुए’’ । 1 कुरिन्थियों 16:2 पौलुस कुरिन्थियों के विश्वासियो से आग्रह करता है कि ’’सप्ताह के पहले दिन तुम में से हर एक अपनी आमदनी के अनुसार कुछ अपने पास रख छोडा करें कि मेरे आने पर चन्दा न करना पडे’’। जबकि पौलुस 2 कुरिन्थियों 9:12 में इस चन्दे को ‘‘सेवा’’ का नाम देता है, यह धन इकटठा किया जाना अवश्य मसीह मण्डली की रविवारीय अराधना के साथ सम्बन्धित किया गया होगा । ऐतिहासिक दृष्टि से समान्यता रविवार, न कि शनिवार मसीही लोगो का चर्च (कलिसिया) में मिलने का दिन होता था, और ऐसा पहली शताब्दी से चलन में है।

सब्त चर्च (कलिसिया) को नही वरन इस्त्राएली को दिया गया था,। सब्त अभी भी शनिवार है, न कि रविवार, और कभी भी बदला नहीं गया। परन्तु सब्त पुराने नियम का हिस्सा है, और मसीही लोग व्यवस्था के बन्धन से स्वतंत्र है (गलातियो 4:1-26; रोमियो 6:14)। सब्त का अनुसरण मसीहीयों के लिए आवश्यक नहीं है- चाहे वह शनिवार या रविवार हो। सप्ताह का पहला दिन, रविवार, प्रभु का दिन (प्रकाशित वाक्य 1:10) मसीह के साथ जो हमारा पुनरूत्थान प्राप्त प्रधान है, नई सृष्टि पर आनन्द मनाता है । हम मूसा द्वारा दिये गए सब्त का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है - (विश्राम करना) परन्तु अब जी उठे मसीह का अनुसरण करने के लिए स्वतंत्र है - (सेवा करना) । प्रेरित पौलुस ने कहा कि प्रत्येक मसीह जन यह निर्णय कर लें कि क्या सब्त को मानना चाहिए,’’ कोई तो एक दिन को दूसर से बढकर मानता है, और कोई सब दिनों को एक समान मानता है । हर एक अपने ही मन में निश्चय कर ले’’ (रोमियो 14.5)। केवल शनिवार या रविवार ही को नही वरन हम को परमेश्वर की प्रत्येक दिन आराधना करनी चाहिए।



सब्त किस दिन होता है, शनिवार या रविवार? क्या मसीही लोगों को सब्त का दिन मानना चाहिए?    
 

मैं संगठित धर्म में क्यो विश्वास करू?


प्रश्न: मैं संगठित धर्म में क्यो विश्वास करू?

उत्तर:
धर्म की शब्दकोषीय परिभाषा कुछ इस तरह की होगी कि ‘‘ईश्वर या ईश्वरों पर विश्वास जिन की उपासना की जाती हो, जो आमतौर से आचरण और रीति-रिवाज़ों में प्रगट होता है; विश्वास, उपासना आदि की विशेष व्यवस्था आमतौर से सदाचार के नियमों के साथ’’ इस परिभाषा के प्रकाश में, बाइबल अवश्य संगठित धर्म के बारे में बात करती है, परन्तु बहुत से विषयों में ‘‘संगठित धर्म’’ के उद्वेश्य और प्रभाव ऐसे नही है जिस से परमेश्वर प्रसन्न होते हो ।

उत्पत्ति अध्याय 11 में, सम्भवता संगठित धर्म का पहला उदाहरण है, सारे संसार में फैल जाने की परमेश्वर की आज्ञा को न मान कर नूह के वंशजो ने संगठित होकर बाबेल का गुम्मट बनाया। वे विश्वास करते थे कि उनकी एकता परमेश्वर के साथ सम्बन्ध रखने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। परमेश्वर ने हस्तक्षेप किया और उनकी भाषा में गडबडी डाल दी, इस तरह उनके संगठित धर्म को तोड डाला।

निर्गमन अध्याय 6 में और उसके आगे, परमेश्वर ने इस्त्राएल राष्ट्र के लिए एक धर्म को ‘‘संगठित’’ किया । दस आज्ञाएं, मिलाप वाले तम्बु के विषय में नियम, और बलिदान चढाने की व्यवस्था यह सब परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए और इस्त्राएलीयों को इनका अनुसरण करना होता था। आगे नये नियम का अध्ययन स्पष्ट करता है कि इस धर्म का उद्वेश्य एक उद्धारकर्ता मसीहा की आवश्यकता की ओरं संकेत करना था (गलतियों 3;रोमियो 7) । यद्यपि, बहुत ने इसे गलत समझा और परमेश्वर की नही वरन नियमों और रीति-रिवाजों की उपासना करने लगे।

इस्त्राएल के सम्पूर्ण इतिहास में, इस्त्राएलीयों द्वारा अनुभव किये गए बहुत से संघर्षो में संगठित धर्मो के साथ संधर्ष भी सम्मिलित थे । उदाहरणों में सम्मिलित है बाल की उपासना (न्यायीयों 6; 1 राजा 18), दागोन (1 शमुएल 5), और मोलेक ( 2 राजा 23:10) परमेश्वर ने अपनी प्रभुसत्ता और महान-शक्ति को प्रदर्शित करते हुए इन धर्मो के अनुयायियों को पराजित किया।

सुसमाचार की पुस्तकों मे, मसीह के समय में फरीसी और सदुकीयों को संगठित धर्म के प्रतिनिधियों के रूप में दर्शाया गया। यीशु निरन्तर उनकी गलत शिक्षाओं और कपटपूर्ण जीवन शैली के कारण उनका सामना करते थे। पत्रीयो में भी संगठित समुह थे जो सुसमाचार को कई आवश्यक कार्यो और रीति रिवाजों की सुचियों के साथ मिलाते थे। वे विश्वासीयों पर भी बदलने और इन ‘‘मसीहत के साथ जोड़े गऐ’’ धर्मो को अपनाने के लिए प्रभाव डालने का मौका ढूढा करते थे । गलातियों और कुलुस्सियो ऐसे धर्मो के विषय में चितावनी देते है। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में, पढ़ते है कि संगठित धर्म संसार मे प्रभावित करेगा जब मसीह -विरोधी संसार का एक विश्वव्यापी धर्म स्थापित करेगा ।

बहुदा, संगठित धर्म का अन्तिम परिणाम परमेश्वर के उद्वेश्य से विमुख करना है। यद्यपि, बाइबल संगठित विश्वासीयों के विषय में अवश्य बताती है जो उसकी योजना का हिस्सा है। परमेश्वर इन संगठित विश्वासियों के समूह को ‘‘कलिसिया’’ कहते है। प्रेरितो के काम और पत्रीयों का विवरण संकेत करता है कि कलिसिया को संगठित और एक दुसरे पर निर्भर होना चाहिए। संगठन के द्वारा सरंक्षण, उत्पादकता और प्रचार-प्रसार होता है (प्रेरितों के काम 2:41-47)। कलिसियों को “संगठित सम्बन्ध’’ कहना अधिक बेहतर होगा ।

धर्म मनुष्य का परमेश्वर के साथ संगति का प्रयास है। मसीह विश्वास परमेश्वर के साथ सम्बन्ध रखना है इसलिए कि उसने यीशु महीह के बलिदान के द्वारा हमारे लिए बहुत कुछ किया। परमेश्वर तक पहुँचने वाली कोई योजना नहीं है ( वह स्वयं हम तक पहुँचा - रोमियो 5:8) कोई धमण्ड करने की बात नहीं है (सब कुछ अनुग्रह से पाया जाता है-इफिसियो 2:8-9) । नेतृत्व के विषय में कोई झगडा - विवाद नहीं होना चाहिए (मसीह प्रधान है-कुलुसियों 1:8)। कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए (हम सब मसीह में एक हैं - गलतियों 3:18) संगठित होना समस्या नहीं है। धर्म के नियमों और रीति रिवाजों पर केन्द्रित होना समस्या है।



मैं संगठित धर्म में क्यो विश्वास करू?    
 

क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?


प्रश्न: क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?

उत्तर:
आज के समय में इससे ज्य़ादा वाद-विवाद का कोई और विषय नहीं हैं जितना कि स्त्रियों के उपदेशों/प्रचारकों के रूप में सेवा करने का विषय हैं । परिणामस्वरूप यह बहुत महत्वपूर्ण हैं कि हम इस विषय को पुरुष बनाम स्त्री के रूप में ना देखें । ऐसी स्त्रियां हंं जो यह मानती हैं कि स्त्रियों को उपदेशकों (पादरियों) के रूप में सेवा नहीं करनी चाहिये तथा बाइबल स्त्रियों के सेवकाई करने पर प्रतिबंध लगाती है-तथा ऐसे पुरूष हैं जो मानते हैं कि स्त्रियां प्रचारकों के रूप में सेवा कर सकती है तथा सेवकाई के लिये स्त्रियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है । यह किसी श्रेष्ठता या भेदभाव का विषय नहीं है । यह बाइबल व्याख्या का विषय है । १तिमुथियुस २:११-१२ दावा करता है, "स्त्री को चुपचाप, पूरी अधीनता से सीखना चाहिये । और मैं कहता हूँ कि स्त्री ना उपदेश करें, और ना पुरुष पर आज्ञा चलाये, परन्तु चुपचाप रहें ।" कलीसियो में, परमेश्वर स्त्रियों तथा पुरुषों को भिन्न-भिन्न भूमिकायें सौंपता है । यह मनुष्य की रचना के तरीके का परिणाम है (१तिमुथियुस २:१३) तथा पाप के संसार में प्रवेश करने का तरीका (२तिमुथियुस २:१४) । परमेश्वर प्रेरित पौलुस के लेखन के द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर आत्मिक शिक्षा की अधिकारी होने से प्रतिबंधित करता है । यह स्त्रियों को उपदेशकों (पादरियों) के रूप में सेवा करने से मना करता है, जिसमें कि प्रचार करने से लेकर शिक्षा देना तथा पुरुषों पर आत्मिक अधिकार रखना शामिल हैं ।

स्त्रियों की सेवाकाई/ स्त्रियों के उपदेशक (पादरी) होने की इस दृष्टि पर कई "धारणा हैं । एक सामान्य धारणा यह है कि पौलुस स्त्रियों को शिक्षा देने पर प्रतिबंध इसलिए लगाता है कि पहली सदी में, स्त्रियॉ विशिष्ट रूप से अशिक्षित थी । हॉलाकि १तिमुथियुस २:११-१४ कही भी शैक्षिक स्तर के विषय में नहीं कहता है । अगर सेवाकाई के लिये शिक्षा ही योग्यता होती, तो यीशु के अधिकतर शिष्य इस योग्य नहीं होते । एक दूसरी सामान्य धारणा यह है कि पौलुस ने केवल इफिसियों की स्त्रियों को शिक्षा देने से मना किया था (१तिमुथियुस, तिमुथिसुस को लिखा गया था जो कि इफिसुस की कलीसिया का उपदेशक (पादरी) था) । इफिसुस का नगर अपने अरतीमुस के मन्दिर के लिये जाना जाता था, एक मिथ्या यूनानी/ रोमी देवी । अरतीमुस की उपासना के लिये स्त्रियॉ ही अधिकारी थी । हॉलाकि तिमुथियुस की पुस्तक कहीं भी अरतीमुस का वर्णन नहीं करती, ना ही पौलुस अरतीमुस की उपासना को १तिमुथिसुस २:११-१२ में प्रतिबंध का कारण बताता है ।

एक तीसरी सामान्य धारणा यह है कि पौलुस केवल पति तथा पत्नियों को संबोधित कर रहा है, पुरुषों तथा स्त्रियों को नहीं । १तिमुथियुस २:११-१४ में यूनानी शब्द पति तथा पत्नियों को संबोधित कर सकते हैं । कैसे भी हो, उन शब्दों का मूलभूत अर्थ पुरुष तथा स्त्री है । इससे आगे, वैसे ही यूनानी शब्द ८-१० पदों में प्रयोग किये गए हैं । क्या केवल पतियों को ही हाथों को उठाकर बिना क्रोध और विवाद के प्रार्थना करने को कहा गया है (पद ८)? क्या केवल पत्नियाँ ही शालीनता से, भले कामों से, परमेश्वर की भक्ति करेंगी (पद ९-१०)? निश्चित ही नहीं । पद ८-१० स्पष्ट रूप से सामान्य पुरूषों तथा स्त्रियों को संबोधित करता है, केवल पति तथा पत्नियों को ही नहीं । पद ११-१४ के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं है जो कि केवल पति तथा पत्नियों की ओर संकेत करे । स्त्री उपदेशकों/प्रचारकों की व्याख्या पर एक और बार-बार किये जाने वाले विवाद का संबंध मरियम, डेबोराह, हुल्दाह, प्रिसकिल्ला तथा फीबे, वगैरह से है-वो स्त्रियां जिन्होंने बाइबल में अगुवाई के पद संभाले हुए थे । यह प्रतिवाद कुछ विशेष तथ्यों को जानने में असमर्थ है । डेबराह के संबंध में यह है कि वह १३ न्यायियों में से एकमात्र स्त्री न्यायी थी । हुल्दाह के संबंध में है कि वह बाइबल में बताये गए दर्जनों भविष्यवक्ताओं में से एक मात्र स्त्री भविष्यवक्ता थी । मरियम का मार्गदर्शन से संबंध उसका मूसा तथा हारून की बहन होना था । राजाओं के समय में दो सबसे महत्वशाली स्त्रियां एतालिय्याह तथा ईज़ेबेल-प्रेरितों के काम की पुस्तक अध्याय १८ में प्रिसक्ल्ला तथा अक्विला को मसीह के वफादार सेवकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्रिसकिल्ला का नाम पहले लिया गया है, संभवतः यह संकेत करते हुए कि वो सेविकाई में अपने पति से अधिक महत्वशाली थी । प्रिसकिल्ला का सेवकाई कार्य में भाग लेने का कहीं भी वर्णन नहीं किया गया है जो कि (१तिमुथियुस २:११-१४) के विरोध में है । प्रिसकिल्ला तथा अक्विला, अपुल्लोस को अपने द्घर लाये थे तथा उसे अनुयायी बनाया था, उसे परमेश्वर का वचन अधिक अच्छी प्रकार से समझाते हुए (प्रेरितों के काम १८:२६)

रोमियो १६:१ में जबकि फीबे को 'सेविका' की जगह 'डीकनेस' (महिला पादरी) माना गया है-यह इस बात को संकेत नहीं करता कि फीबे कलीसियो में शिक्षिका थी । "शिक्षा देने में समर्थ" एक योग्यता है जो प्राचीनों (अध्यक्ष) को दी जाती है, डीकनों को नहीं (१तिमुथियुस ३:१; तीतुस १:६-९) । प्राचीनों/बिशपों/डीकनो का वर्णन "एक ही पत्नी का पति," 'जिन के लड़के वाले विश्वासी हों," "आदर के योग्य ।" इसके साथ-साथ, (१तिमुथियुस ३:१-१३) तथा तितुस (१:६-९), में पुरूषवाचक सर्वनामों का प्राचीनो/बिशपों/डीकनों के संबोधन के लिये अनन्य रूप से प्रयोग किया गया है ।

१तिमुथियुस २:११-१४ का स्वरूप "कारण" को पूर्णतया स्पष्ट बनाता है । पद १३ "क्योंकि" से शुरू होता है और उस "कारण" को बताता है जो कि पौलुस ने पद ११-१२ में कहा है । स्त्रियॉ क्यों उपदेश ना दें तथा पुरूषों पर आज्ञा ना चलायें? क्योंकि आदम की रचना हव्वा से पहले की गई थी । तथा आदम बहकाया नहीं गया था; स्त्री बहकाने में आई थी ।" यह कारण है । परमेश्वर ने पहले आदम को बनाया तथा फिर हव्वा को बनाया, कि वो आदम की "सहायक" हो । सृष्टि का यह क्रम मानवजाति में परिवार में पूरे संसार पर लागू होता है (इफिसियों ५:२२-२३) तथा कलीसिया में भी । इस वास्तविकता का कि हव्वा बहकाई गई थी, को भी एक कारण के रूप में लिया जाता है कि स्त्रियों को उपदेशकों के रूप में सेवा करना या पुरुषों के ऊपर आत्मिक नियंत्रण रखना प्रतिबंधित है । यह बात कुछ लोगों को यह मानने के ओर ले जाती है कि स्त्रियों को शिक्षा नहीं देनी चाहिये क्योंकि उन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है । यह धारणा वाद विवाद का विषय है ---- परन्तु अगर स्त्रियॉ आसानी से बहकावे में आ जाती है, तो उन्हें बालकों को शिक्षा देने की अनुमति क्यों दी जाती है (जो कि आसानी से बहकाये जा सकते हैं) तथा अन्य स्त्रियों को (जो कि कल्पनानुसार अधिक आसानी से बहकाई जा सकती है)? यह वो नहीं है जो शास्त्र कहता है । स्त्रियों को उपदेश देने तथा पुरुषों के ऊपर आत्मिक नियंत्रण रखने के लिये मना किया गया है क्योंकि हव्वा बहकाई गई थी । परिणामस्वरूप, परमेश्वर ने पुरुषों को कलीसिया में उपदेश देने के मूल अधिकार दिये है ।

स्त्रियाँ सत्कारशीलता, दया, शिक्षा तथा सहायता के वरदानों में श्रेष्ठ है । एक कलीसिया की अधिकतर सेवकाई स्त्रियों पर निर्भर है । कलीसिया की स्त्रियॉ सार्वजनिक प्रार्थनाओं या भविष्यवाणी करने (१कुरिन्थियों ११:५) के लिये प्रतिबंधित नहीं है, केवल पुरुषों के ऊपर आत्मिक उपदेश के अधिकार के लिए है । बाइबल में कहीं भी स्त्रियों को पवित्र आत्मा के वरदानों का अभ्यास करने के लिए नहीं रोकती (१कुरिन्थियों अध्याय १२) । स्त्रियों को भी, पुरुषों जितना, अन्यों की सेवा करने के लिये तथा आत्मा के फल को (गलतियों ५:२२-२३) प्रदर्शित करने के लिए तथा खोए हुओं को सुसमाचार की उदघोषणा करने के लिये बुलाया गया है (मत्ती २८:१८-२०; प्रेरितों के काम १:८; १पतरस ३:१५) ।

परमेश्वर ने यह आदेश दिया है कि केवल पुरुष ही कलीसिया में आत्मिक शिक्षा के पदों को संभालेंगे । यह इसलिये नहीं है कि पुरुष आवश्यक रूप से बेहतर शिक्षक होते हैं, या स्त्रियॉ निकृष्ट या कम बुद्धिमान (जब कि ऐसा नहीं है) होती है । यह केवल एक साधारण तरीका है जिसे परमेश्वर ने कलीसिया के कार्य करने के लिये बनाया है । पुरुषों को अपने जीवन में तथा अपने शब्दों के द्वारा आत्मिक मार्गदर्शन में एक उदाहरण बनाना है । स्त्रियों को एक कम अधिकारों वाली भूमिका संभालनी है । स्त्रियों को अन्य स्त्रियों को शिक्षा देने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है (तीतुस २:३-५) । बाइबल स्त्रियों के बालकों को शिक्षा देने पर भी प्रतिबंध नहीं लगाती । केवल एक कार्य जिसके लिये स्त्रियॉ प्रतिबंधित हैं वो है पुरुषों के ऊपर आत्मिक अधिकार रखना । तर्क की दृष्टि से इसमें वो स्त्रियॉ शामिल है जो कि उपदेशकों/प्रचारकों के रूप में सेवा कर रहीं है । यह किसी भी तरह से स्त्रियों को कम महत्व का नहीं बताता परन्तु उन्हें सेवकाई का अधिक मौका देता है उस सहमति में कि परमेश्वर ने उन्हें कैसे वरदान दिये हैं ।



क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?