१७
अय्यूब की प्रार्थना 
 १ “मेरा प्राण निकलने पर है, मेरे दिन पूरे हो चुके हैं; 
मेरे लिये कब्र तैयार है। 
 २ निश्चय जो मेरे संग हैं वह ठट्ठा करनेवाले हैं, 
और उनका झगड़ा-रगड़ा मुझे लगातार दिखाई देता है। 
 ३ “जमानत दे, अपने और मेरे बीच में तू ही जामिन हो; 
कौन है जो मेरे हाथ पर हाथ मारे? 
 ४ तूने उनका मन समझने से रोका है*, 
इस कारण तू उनको प्रबल न करेगा। 
 ५ जो अपने मित्रों को चुगली खाकर लूटा देता, 
उसके बच्चों की आँखें रह जाएँगी। 
 ६ “उसने ऐसा किया कि सब लोग मेरी उपमा देते हैं; 
और लोग मेरे मुँह पर थूकते हैं। 
 ७ खेद के मारे मेरी आँखों में धुंधलापन छा गया है, 
और मेरे सब अंग छाया के समान हो गए हैं। 
 ८ इसे देखकर सीधे लोग चकित होते हैं, 
और जो निर्दोष हैं, वह भक्तिहीन के विरुद्ध भड़क उठते हैं। 
 ९ तो भी धर्मी लोग अपना मार्ग पकड़े रहेंगे, 
और शुद्ध काम करनेवाले सामर्थ्य पर सामर्थ्य पाते जाएँगे। 
 १० तुम सब के सब मेरे पास आओ तो आओ, 
परन्तु मुझे तुम लोगों में एक भी बुद्धिमान न मिलेगा। 
 ११ मेरे दिन तो बीत चुके, और मेरी मनसाएँ मिट गई, 
और जो मेरे मन में था, वह नाश हुआ है। 
 १२ वे रात को दिन ठहराते; 
वे कहते हैं, अंधियारे के निकट उजियाला है। 
 १३ यदि मेरी आशा यह हो कि अधोलोक मेरा धाम होगा, 
यदि मैंने अंधियारे में अपना बिछौना बिछा लिया है, 
 १४ यदि मैंने सड़ाहट से कहा, 'तू मेरा पिता है,' 
और कीड़े से, 'तू मेरी माँ,' और 'मेरी बहन है,' 
 १५ तो मेरी आशा कहाँ रही? 
और मेरी आशा किस के देखने में आएगी? 
 १६ वह तो अधोलोक में उतर जाएगी*, 
और उस समेत मुझे भी मिट्टी में विश्राम मिलेगा।”