अधिकतर बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्न

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क्या शाश्वत सुरक्षा बाइबल है?

मृत्यु के बाद क्या होता है?

एक बार उद्धार सदा के लिये उद्धार?

आत्महत्या के प्रति मसीही दृष्टिकोण क्या है? बाइबल आत्महत्या के विषय में क्या कहती है?

बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?

क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?

विवाह पूर्व यौन संबंधों के बारे में बाइबल क्या कहती है?

क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?

तलाक तथा पुनर्विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?

दशमांश देने के विषय में बाइबल क्या कहती है?

अंतर्जातीय विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?

अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?

आत्मा की अगुवाई से बोलने का क्या अर्थ है? क्या आत्मा की अगुवाई में बोलने का वरदान आज भी है?

अल्कोहल/शराब पीने के विषय में बाइबल क्या कहती है? एक क्रिश्चियन के लिये अल्कोहल पीना क्या पाप है?

जुआ खेलने के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या जुआ खेलना पाप है?

शरीर पर छाप लगाने या गोदने के विषय में बाइबल क्या कहती है?

क्या पालतू / जानवर स्वर्ग में जाते हैं? क्या पालतू / जानवरों में आत्मा होती है?

बाइबल डायनासोर के विषय में क्या कहती है? क्या बाइबल में डायनासोर का वर्णन है?

कैन की पत्नी कौन थी? क्या कैन की पत्नी उसकी बहन थी?

समलैंगिकता के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या समलैंगिकता एक पाप है?

हस्तमैथुन - क्या यह बाइबल के अनुसार पाप है?


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अधिकतर बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्न    
 

क्या शाश्वत सुरक्षा बाइबल है?


प्रश्न: क्या शाश्वत सुरक्षा बाइबल है?

उत्तर:
जब लोग मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में जान जाते हैं, वो परमेश्वर के साथ संबंध में लाये जाते हैं जो कि उनकी शाश्वत सुरक्षा की गारंटी होती है । यहूदी २४ घोषणा करता है, "अब जो तुम्हें ठोकर खाने से बचा सकता है, और अपनी महिमा की भरपूरी के सामने मगन और निर्दोष खड़ा कर सकता है ।" परमेश्वर की शक्ति विश्वासी को ठोकर खाने से बचाने में समर्थ है । वो उसके ऊपर है, हमारे ऊपर नहीं, कि वो हमको अपनी महिमा की भरपूरी के सामने खड़ा करें । हमारी शाश्वत सुरक्षा परमेश्वर द्वारा हमें बचाये रखना है, ना कि हमारा स्वयं अपना उद्धार बनाये रखना ।

प्रभु यीशु मसीह ने उद्घोषित करते हुए कहा "मैं उन्हें शाश्वत जीवन देता हू, और वे कभी विनष्ट नहीं होंगे, और कोई उन्हें मेरे हाथ से छीन नही सकता । मेरे परमपिता, जिन्होंने उनको मुझे सौंपा था, सबसे महान है, और कोई उन्हें परमपिता के हाथ से छीन नहीं सकता" (यूहन्ना १०:२८-२९) । यीशु तथा परमपिता दोनों ने हमें कस कर अपने हाथों में पकड़ रखा है । परमपिता तथा पुत्र की मुठटी से हमें कौन अलग कर सकता है?

इफिसियों ४:३० हमें बताता है कि विश्वासियों को "मुक्ति दिवस के लिए निर्दिष्ट कर दिया गया है।" अगर अनुयायिओं के पास शाश्वत सुरक्षा नहीं होती, तो वो मुक्ति के दिन तक के लिये निर्दिष्ट नहीं होती, परन्तु केवल पाप करने, धर्म त्यागने, या अविश्वास करने के दिन तक ही होती । यूहन्ना ३:१५-१६ हमें बताता है कि जो भी यीशु मसीह में विश्वास करता है उसे "शाश्वत जीवन" दिया जायेगा । अगर किसी व्यक्ति को शाश्वत जीवन देने को कहा गया है, परन्तु फिर उससे ले लिया गया है, तो वो शुरू से ही "शाश्वत" कभी नहीं था । अगर शाश्वत सुरक्षा सत्य नहीं है, तो बाइबल में शाश्वत जीवन के वादे भूल ही होंगे ।

शाश्वत सुरक्षा के लिये सबसे शक्तिशाली दलील रोमियो ८:३८-३९ है, "क्योंकि मैं निश्चय जानता हूँ, कि न मृत्यु, न जीवन, न स्वर्गदूत, न प्रधानताएं, न वर्तमान, न भविष्य, न सामर्थ्य, न ऊँचाई, न गहराई और न कोई और सृष्टि, हमें परमेश्वर के प्रेम से, जो हमारे प्रभु यीशु मसीह में है, अलग कर सकेगी ।" हमारी शाश्वत सुरक्षा उसके द्वारा उद्धार किये गए लोगों के प्रति परमेश्वर के प्रेम के ऊपर आधारित है । हमारी शाश्वत सुरक्षा को यीशु ने खरीदा है, परमेश्वर ने वादा किया है, तथा पवित्र आत्मा ने छाप लगाई है ।


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क्या शाश्वत सुरक्षा बाइबल है?    
 

मृत्यु के बाद क्या होता है?


प्रश्न: मृत्यु के बाद क्या होता है?

उत्तर:
क्रिशचियन धर्म के तहत मृत्यु के बाद जीवन के संबंध में महत्वपूर्ण परिमाण में धारणाएं है। कुछ लोगों की धारणा है कि एक व्यक्ति अंतिम निर्णय तक सुप्तावस्था में रहता है और उसके बाद स्वर्ग अथवा नरक में भेजा जाता है। जबकि अन्य लोगों इस मत को समर्थन देते हैं कि मृत्यु के तुरंत पश्चात ही निर्णय लेकर उक्त व्यक्ति को शाश्वत गंतव्य पर भेज दिया जाता है। इसके अलावा भी कुछ और लोगों का दावा है कि लोग जब मरते हैं तो उ नकी आत्मा को पुनर्जीवन की प्रतीक्षा के लिए अस्थायी स्वर्ग अथवा नरक में भेज दिया जाता है, फिर उसके बाद अंतिम निर्णय के बाद शाश्वत गंतव्य को निर्णीत किया जाता है। क्या बाइबल मृत्यु के पश्चात इसी सत्य को उद्घाटित करता है।

प्रथम, जीसू क्राइस्ट के अनुयायिओं के लिए, बाइबल हमें बताता है कि मृत्यु के पश्चात अनुयायी के आत्मा या ब्रह्म को स्वर्ग में ले जाया जाता है, क्योंकि उनके पापों को क्राइस्ट को रक्षक के रूप में प्राप्त करने से माफ कर दिया जाता है। (जॉन 3:16,18,36)। अनुयायिओं के लिए मृत्यु शरीर को छोड़कर ईश्वर के घर जाने की प्रक्रिया मान जाता है। (२कुरिन्थियों ५:६-८; फिलिप्पियों १:२३) । हालंकि कुरिन्थियों 15:50-54 एवं 1 थेसालोनियन्स 4:13-17 अनुच्छेदों के अनुसार अनुयायी की आत्मा को फिर से पुर्नजीवित कर गौरवपूर्ण अंग प्रदान किया जाता है। अगर अनुयायी मृत्यु के उपरान्त तुरंत क्राइस्ट के पास चला आता है तो पुर्नजीवन का क्या अर्थ है? ऐसा प्रतीत होता है कि जब मृत्यु के तुरंत पश्चात अनुयायी क्राइस्ट के पास चला जाता है, भौतिक शरीर कब्र में सुप्तावस्था में विद्यमान होता है। अनुयायी के पुर्नजन्म होने पर भौतिक शरीर को पुर्नजीवित, महिमामंडित तथा पूर्ण किया जाता है और फिर उसे आत्मा के साथ एकीकृत कर दिया जाता है। ये संयुक्त तथा महिमामंडित शरीर आत्मा तथा ब्रह्म अनुयायिओं के लिए नये स्वर्ग तथा नयी पृथ्वी पर शाश्वत निवास स्थान होगा। (Revelation अध्याय 21-22).

द्वितीय उनके लिए जो जीसू क्राइस्ट को रक्षक के रूप में नहीं स्वीकार करते है, उनको मृत्यु के पश्चात अनंत दण्ड भोगना पड़ता है। हालंकि अनयायिओं की तरह ही उन्हे भी मृत्यु के पश्चात किसी अस्थायी स्थान पर उनके पुर्नजीवन, निर्णय तथा शाश्वत जीवन की निर्णय के लिए प्रतीक्षा करना पड़ता है। ल्यूक 16:22-23 एक समृद्ध व्यक्ति के मृत्यु के पश्चात मिलने वाले दण्ड के बारे में वर्णन करता है। Revelation 20:11-15 सारे अविश्वासियों को मृत्यु के पश्चात पुर्नजीवित कर ग्रेट व्हाइट थोर्न पर फैसले के द्वारा नरक की आग में फेके जाने का वर्णन करता है। अविश्वासियों को उसके बाद मृत्यु के तुरंत बाद नर्क में भेज दिया जाता है। किन्तु अपेक्षातया अस्थायी निर्णय तथा तिरस्कार के तौर भेजा जाता है। हालंकि अविश्वासियों को तुरंत नरक की आग में नहीं जाता किन्तु मृत्यु के तुरंत बाद उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं होती है। समृद्ध मनुष्य दर्द से चिल्लाता है ‘मैं इस आग में तड़प रहा हूँ’ (Luke 16:24).

इसिलिए मृत्यु के पश्चात अनुयायी तथा अविश्वासियों दोनों के लिए एक व्यक्ति अस्थायी स्वर्ग अथवा नर्क में मौजूद रहता है। इस अस्थायी क्षेत्र के पश्चात, अपने निर्णीत पुर्नजीवन के बाद लोगों की भाग्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा। मात्र अनंत स्थिति में परिवर्तन होता है। मृत्यु के पश्चात, अनुयायिओ को नये स्वर्ग अथवा नयी पृथ्वी पर प्रवेश की अनुमति मिलता है। (Revelation 21:1)अविश्वासियों को मृत्यु के पश्चात नर्क की आग में जलने के लिए भेज दिया जाता है। (Revelation 20:11-15) ये सभी लोगों का अंतिम गंतव्य होता है, चाहे वे क्राइस्ट पर मुक्ति के लिए विश्वास करते हों या नहीं। (Matthew 25:46; John 3:36).


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मृत्यु के बाद क्या होता है?    
 

एक बार उद्धार सदा के लिये उद्धार?


प्रश्न: एक बार उद्धार सदा के लिये उद्धार?

उत्तर:
एक बार एक व्यक्ति उद्धार पा गया तो क्या उसको सदा के लिये उद्धार मिल गया? जब लोग मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में जान लेते हैं, वो परमेश्वर के साथ संबंध में लाये जाते हैं जो कि उनके उद्धार को अनन्तता के लिये सुरक्षित होने की गारंटी है । पवित्र शास्त्र के अनेक अनुच्छेद इस वास्तविकता की घोषणा करते हैं ।

(क) रोमियो ८:३० घोषणा करता है, "फिर जिन्हें उस ने पहले से ठहराया, उन्हें बुलाया भी, और जिन्हें बुलाया उन्हें धार्मिक भी ठहराया गया है, और जिन्हें धार्मिक ठहराया गया, उन्हें महिमा भी दी गई है ।" यह पद हमें बताता है कि जिस क्षण परमेश्वर हमें चुन लेता है, वो ऐसा होता है जैसे कि स्वर्ग में उसकी उपस्थिति में हमें महिमा दी जा रही हो । ऐसी कोई कारण नहीं है जो कि एक दिन विश्वासी की महिमा होने को रोक सके, क्योंकि परमेश्वर ने पहले से ही उसे स्वर्ग में उसे ठहराया है । एक बार एक व्यक्ति को न्याय मिल गया, उसका उद्धार पक्का है-वो उतना सुरक्षित है जैसे कि पहले से ही स्वर्ग में महिमा पा चुका हो ।

(ख) पौलुस रोमियों ८:३३-३४ में दो महत्वपूर्ण प्रश्न पूछता है "परमेश्वर के चुने हुओं पर दोष कौन लगायेगा? परमेश्वर वह है जो उनको धार्मिक ठहराने वाला है । फिर कौन है जो दण्ड की आज्ञा देगा? मसीह वह है जो मर गया वरन मुर्दों में से जी भी उठा, और परमेश्वर की दाहिनी ओर है, और हमारे लिये निवेदन भी करता है ।" परमेश्वर के चुने हुए पर दोष कौन लगायेगा? कोई भी नहीं, क्योंकि मसीह हमारा अधिवक्ता है । हमें कौन दण्ड देगा? कोई भी नहीं, क्योंकि मसीह, वो जो हमारे लिये मरा, वो ही दण्ड देता है । हमारे पास हमारे उद्धारकर्ता के रूप में अधिवक्ता तथा न्यायी दोनों है ।

(ग) विश्वासी पुनः जन्म लेते हैं (सुधार किए हुए) जब वो विश्वास करते हैं (यूहन्ना ३:३; तीतुस ३:५) । एक मसीही को उद्धार गॅवाने के लिये, उसको सुधार ना किया हुआ होना पड़ेगा । बाइबल ऐसा कोई प्रमाण नहीं देती कि पुर्नजीवन ले जाया जा सकता है । (घ) पवित्र आत्मा सारे विश्वासियों में बसता है (यूहन्ना १४:१७; रोमियो ८:९) तथा सारे विश्वासियों को यीशु के शरीर में बर्पातस्मा देता है (१कुरिन्थियों १२:१३) । एक विश्वासी को उद्धार रहित बनना पड़ेगा, तथा यीशु के शरीर में से अलग होना पड़ेगा ।

(प) यूहन्ना ३:१५ व्याख्या करता है कि जो भी मसीह पर भरोसा करते हैं उन्हें "अनन्त जीवन मिलेगा ।" अगर आप आज मसीह में विश्वास करके अनन्त जीवन पा लेते हैं, परन्तु कल उसे गवा देते हैं, तो फिर वो कभी भी "अनन्त" नहीं था । इसलिए अगर आप अपना उद्धार गॅवा देते हैं, बाइबल में अनन्त जीवन के वादे एक भूल होगी ।

(फ) सबसे अधिक निश्चायत्मक दलील के लिये, मैं सोचता हूँ कि पवित्र शास्त्र स्वयं सबसे अच्छी तरह कहता है, "क्योंकि मैं निश्चय जानता हूँ कि न मृत्यु, न जीवन, न स्वर्गदूत, न प्रधानताएं, न वर्तमान, न भविष्य, न सामर्थ, न ऊँचाई, न गहराई, और न कोई सृष्टि, हमें परमेश्वर के प्रेम से, जो हमारे प्रभु यीशु मसीह में है, अलग कर सकेगी" (रोमियो ८:३८-३९) । स्मरण रखें वो ही परमेश्वर जिसने आप का उद्धार किया था वो ही परमेश्वर है जो आपको बनाए रहेगा । एक बार हमें उद्धार प्राप्त हो गया तो सदा के लिए हो जाता है । हमारा उद्धार सर्वाधिक निश्चित अनन्तकाल के लिए सुरक्षित है!


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एक बार उद्धार सदा के लिये उद्धार?    
 

आत्महत्या के प्रति मसीही दृष्टिकोण क्या है? बाइबल आत्महत्या के विषय में क्या कहती है?


प्रश्न: आत्महत्या के प्रति मसीही दृष्टिकोण क्या है? बाइबल आत्महत्या के विषय में क्या कहती है?

उत्तर:
बाइबल के अनुसार, किसी के स्वर्ग या नरक में जाने का फैसला इस बात से निश्चित नहीं होता कि उसने आत्महत्या की है या नहीं । अगर किसी ऐसे व्यक्ति ने आत्महत्या की हो जिसे उद्धार प्राप्त ना हुआ हो, तो उसने और कुछ नहीं किया बल्कि आग की झील में अपनी यात्रा में तेज़ी लाई है । हॉलाकि, आत्महत्या करने वाला व्यक्ति मसीह के उद्धार को अस्वीकार करने के लिये आखिरकार नरक में ही जायेगा, इसलिए नहीं कि उसने आत्महत्या की है । बाइबल चार विशेष लोगों के बारे में बताती है जिन्होंने आत्महत्या किया हो : शाऊल (१शमुएल ३१:४), अहीतोपेल (२शमुएल १७:१३), जिम्री (१राजा १६:१८), तथा यहूदा (मत्ती २७:५) । उनमें से हर एक व्यक्ति दुष्ट, बुरा तथा पापी था । बाइबल आत्महत्या को हत्या की तरह मानती है-वो ऐसा ही कार्य है-स्वयं की हत्या । परमेश्वर ही है जो निर्णय करता है कि व्यक्ति को कब और कैसे मरना चाहिये। बाइबल के अनुसार, उस अधिकार को अपने हाथों में लेना, परमेश्वर की निन्दा करना है ।

बाइबल एक मसीही के बारे में क्या कहती है जो आत्महत्या करता है? मेरा ऐसा विश्वास नहीं है कि एक मसीही, जिसने की आत्महत्या किया हो, वो मुक्ति गॅवा कर, नरक में जायेगा । बाइबल हमें यह शिक्षा देती है कि जिस क्षण से एक व्यक्ति मसीह पर सच्चा विश्वास करता है, वो अनन्त काल के लिये सुरक्षित हो जाता है (यूहन्ना ३:१६) । बाइबल के अनुसार, मसीही किसी भी सन्देह से परे यह जान सकते हैं कि उनके पास अनन्त जीवन है, चाहे जो भी हो । "मैंने तुम्हें, जो परमेश्वर के पुत्र के नाम पर विश्वास करते हो, इसलिए लिखा है; कि तुम जानो, कि अनन्त जीवन तुम्हारा है" (१यूहन्ना ५:१३) । परमेश्वर के प्रेम से एक मसीही को कोई अलग नहीं कर सकता ! "क्योंकि मैं निश्चय जानता हूँ, कि न मृत्यु, न जीवन, न स्वर्गदूत, न प्रधानताएं, न वर्तमान, न भविष्य, न सामर्थ्य, न ऊँचाई, न गहराई, और न कोई सृष्टि, हमें परमेश्वर के प्रेम से, जो हमारे प्रभु यीशु मसीह में है, अलग कर सकेगी" (रोमियो ८:३८-३९) । अगर कोई "सृष्टि" भी एक मसीही को परमेश्वर के प्रेम से अलग नहीं कर सकती, तथा एक मसीही जो कि आत्महत्या करता है, वो भी एक "सृष्टि" है, तो आत्महत्या भी उसको परमेश्वर के प्रेम से अलग नहीं हो सकता। यीशु हमारे सारे पापों के लिये मरा ---- और अगर एक सच्चे मसीही को, आत्मिक आक्रमण तथा दुर्बलता के समय में, आत्महत्या करनी पड़ी-तो वो भी एक पाप होगा जिसके लिये यीशु मरा ।

इससे यह नहीं कहा जा सकता कि आत्महत्या परमेश्वर के विरुद्ध एक गंभीर पाप नहीं है । बाइबल के अनुसार, आत्महत्या हत्या है यह कहना हमेशा गलत है । मुझे उस किसी भी व्यक्ति के विश्वास के बारे में गंभीर संदेह है जो कि अपने आपको मसीही कहलाने का दावा करें तथा फिर भी आत्महत्या करें । ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है, जो कि किसी का औचित्य सिद्ध करे, विशेषत: एक मसीही को, कि वे स्वयं अपने प्राण का त्याग करें। क्रिश्चियन अपने जीवन को ईश्वर को समर्पण करने के लिए समर्पित है, वे अपने प्राण का त्याग मात्र ईश्वर के आज्ञा से ही कर सकता है। संभवत: क्रिश्चियन के लिए आत्महत्या के सबसे अच्छा उदाहरण ईशर के पुस्तक से व्याख्यित किया जा सकता है। पारसियों का एक कानून है कोई भी व्यक्ति अगर राजा के सामने बिना आमंत्रण के आ जाता है तो उसे मौत की घाट उतार दिया जाता है जब तक राजा उसे सहायता प्रदान कर माफ नहीं कर देता है। एक क्रिश्चियन के लिए आत्महत्या राजा के यहाँ बिना आमंत्रण के जाना है, उसके द्वारा बिना बुलाये। वो अपने सेप्टर से आपकी तरफ इंगित करेगा, आपके शाश्वत जीवन को छोड़ते हुए, लेकिन इसका तात्पर्य ये नहीं कि वो आपसे खुश नहीं है। हालंकि ये पूरी तरह से आत्महत्या के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता है, शायद 1 कुरिथिन्यों 3:15 एक क्रिश्चियन के आत्महत्या के बारे मंि उचित ही वर्णन करता है कि वह मात्र स्वयं को ही संरक्षित करेगा, लेकिन वैसे ही जैसे कोई आग की लपटों से स्वयं की रक्षा करता है।


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आत्महत्या के प्रति मसीही दृष्टिकोण क्या है? बाइबल आत्महत्या के विषय में क्या कहती है?    
 

बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?


प्रश्न: बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?

उत्तर:
त्रिस्वरूप के बारे में मसीही धारणा के विषय में सबसे कठिन बात यह है कि उसे संतोषजनक रूप से समझाने का कोई तरीका नहीं है । त्रिस्वरूप एक ऐसी धारणा है जिसे किसी भी मनुष्य को पूरी तरह से समझना असंभव है । ईश्वर हम से अपरिमित रूप से बहुत महान है, इसलिए हमें स्वयं को उसको पूर्ण रूप से समझने की अपेक्षा के योग्य नहीं समझना चाहिये । बाइबल बताती है कि पिता ईश्वर है, यीशु ईश्वर है, तथा पवित्र आत्मा ईश्वर है । बाइबल यह भी बताती है कि ईश्वर केवल एक ही है । यद्यपि हम त्रिस्वरूप के तीन भिन्न व्यक्तियों के आपस में संबंध की कुछ वास्तविकताओं को समझ सकते हैं, परन्तु अन्ततः वो मानव मस्तिष्क में आसानी से समझ में आने के योग्य नहीं है । हालांकि, इसका अर्थ यह नहीं है कि वो सत्य नहीं है या बाइबल की शिक्षाओं पर आधारित नहीं है ।

इस विषय का अध्ययन करते हुए यह बात ध्यान रखें कि "त्रिस्वरूप" शब्द पवित्रशास्त्र में कहीं उपयोग नहीं किया गया है । यह शब्द त्रिस्वरूप ईश्वर का वर्णन करने के प्रयास में उपयोग किया गया है, इस वास्तविकता के तीन साथ-साथ रहने वाले, सनातन व्यक्तित्व है जिन्हें ईश्वर कहा जाता है । यह समझ लें कि इसका अर्थ तीन ईश्वर नहीं है । त्रिस्वरूप एक ईश्वर है जो कि तीन व्यक्तिवों में विद्यमान है। "त्रिस्वरूप" शब्द के प्रयोग करने में कुछ गलत नहीं है जबकि यह बाइबल में कहीं नहीं पाया जाता है । "त्रिस्वरूप" शब्द" कहना "तीन साथ-साथ रहने वाले, सनातन व्यक्तित्वों का एक ईश्वर" को कहने से छोटा है । अगर यह बात आपको कोई समस्या प्रस्तुत करता है, तो इस प्रकार समझें : दादा शब्द भी बाइबल में उपयोग नहीं किया गया है, जबकि हम जानते हैं कि बाइबल में दादा भी थे । अब्राहम याकूब का दादा था । इसलिए "त्रिस्वरूप" शब्द को पकड़े ना रहें । जो बात वास्तविक महत्व की होनी चाहिये वो यह है जिस धारणा का "त्रिस्वरूप" शब्द के द्वारा प्रतिनिधितत्व किया गया है उसका पवित्रशास्त्र में आस्तित्व है । अलग से प्रस्तुतिकरण के द्वारा, त्रिस्वरूप के विषय में परिचर्चा के लिए बाइबल में उदाहरण प्रस्तुत हैं :

१) यहोवा एक ही है : (व्यवस्था विवरण ६:४; १कुरिन्थियों ८:४; गलतियों ३:२०; १तिमुथियुस २:५) ।

२) त्रिस्वरूप तीन व्यक्तित्वों से बना हुआ है : (उत्पत्ति १:१; १:२६; ३:२२; ११:७; यशायाह ६:८; ४८:१६; १६:१; मत्ती ३:१६-१७; २८:१९; २कुरिन्थियों १३:१४) । पुराने नियम के अनुच्छेदों के लिये, इब्रानी (हिब्रु) भाषा का ज्ञान उपयोगी होगा । (उत्पत्ति १:१) में बहुवचन संज्ञा "एलोहीम" का प्रयोग किया गया है । (उत्पत्ति १:२६; ३:२२, ११:७) तथा (यशायाह६:८) में, बहुवचन सर्वनाम "हम" का प्रयोग किया गया है । इस बात का कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि "एलोहिम" या "हम" का अर्थ एक से अधिक है । अंग्रेजी में दो रूप होते हैं, एकवचन तथा बहुवचन । इब्रानी भाषा में, तीन रूप होते हैं : एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन । द्विवचन केवल दो के लिये है । इब्रानी भाषा में द्विवचन उन वस्तुओं के लिए प्रयोग किया जाता है जो जोड़े में होती है जैसे ऑखें, कान तथा हाथ । शब्द "एलोहिम" तथा सर्वनाम "हम" बहुवाचक रूप हैं- निश्चित रूप से दो से अधिक तथा तीन या चार का उल्लेख करते हैं (पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा) । यशायाह ४८:१६ तथा ६१:१ में पुत्र, पिता तथा पवित्र आत्मा से संबंधित होकर बात करता है । यह जानने के लिये यशायाह ६१:१ तथा लूका ४:१४-१९ के मध्य तुलना करें कि वो पुत्र ही बोल रहा है । मत्ती ३:१६-१७ यीशु के बपतिस्में की घटना का वर्णन करता है । इसमें यह बात देखी जाती है कि ईश्वर रूपी पवित्र आत्मा का ईश्वर रूपी पुत्र के ऊपर आना जबकि ईश्वर रूपी पिता, पुत्र में अपनी प्रसन्नता का ऐलान करता है ।

3) त्रिस्वरूप के सदस्यों का एक दूसरे से अंतर कई अनुच्छेदों में है : पुराने नियम में, "यहोवा" का "प्रभु" से अंतर है (उत्पत्ति १९:२४; होशे १:४) । "यहोवा" के पास एक "पुत्र" है (भजन संहिता २:७; १२; नीतिवचन ३०:२-४) । आत्मा का "यहोवा" से (गिनती २७:१८) तथा "ईश्वर" से अंतर है (भजन संहिता ५१:१०-१२) । ईश्वर रूपी पुत्र तथा ईश्वर रूपी पिता में अंतर है (भजन संहिता ४५:६-७; इब्रानियों १:८-९) । नए नियम में, यूहन्ना १४:१६-१७ में यीशु पिता से एक सहायक भेजने के विषय में बाते करता है, पवित्र आत्मा के भेजने के लिये । यह बात बताती है कि यीशु अपने आप को पिता या पवित्र आत्मा नहीं समझता था । सुसमाचार के अन्य भागों में भी उन क्षणों का विचार करें जब यीशु पिता से बातें करता है । क्या वह अपने आप से बातें कर रहा था? नहीं । उसने त्रिस्वरूप के अन्य अस्तित्व से बात की-पिता से ।

4) त्रिस्वरूप का हर एक सदस्य ईश्वर है : पिता ईश्वर है : यूहन्ना ६:२७, रोमियो १:७; १पतरस १:२ । पुत्र ईश्वर है : यूहन्ना १:१, १४; रोमियो ९:५; कुलुस्सियों २:९; इब्रानियों १:८; १यूहन्ना ५:२० । पवित्र आत्मा ईश्वर है : प्रेरितों के काम ५:३-४; १कुरिन्थियों ३:१६ (जो वास करता है वह पवित्र आत्मा है-रोमियो ८:९; यूहन्ना १४:१६-१७; प्रेरितों के काम २:१-४) ।

5) त्रिस्वरूप के अंतर्गत अधीनस्थता : पवित्रशास्त्र दिखाता है कि पवित्र आत्मा पिता तथा पुत्र के अधीन है, तथा पुत्र पिता के अधीन है । यह एक अन्दरूनी संबंध है, तथा त्रिस्वरूप के व्यक्ति की प्रभुता को नहीं नकारता । यह एक साधारणतया ऐसा क्षेत्र हैं जहॉ हमारे सीमित मस्तिष्क ईश्वर की विशालता को नहीं समझ सकते । पुत्र के संबंध में देखें : लूका २२:४२; यूहन्ना ५:३६; २०:२१; १यूहन्ना ४:१४ । पवित्र आत्मा के संबंध में देखें यूहन्ना १४:१६; १४:२६; १५:२६; १६:७ तथा विशेष रूप से यूहन्ना १६:१३-१४ ।

6) त्रिस्वरूप के वैयक्तिक सदस्यों के कार्य : पिता इन वस्तुओं का मूलभूत स्त्रोत या कारण है । (१) ब्रह्याण्ड (१कुनिन्थियों ८:६; प्रकाशित वाक्य ४:११); (२) ईश्वरीय प्रकाश (प्रकाशित वाक्य १:१); (३) उद्धार (यूहन्ना ३:१६-१७); तथा (४) यीशु के मानवीय कार्य (यूहन्ना ५:१७; १४:१०) । पिता इन सारी वस्तुओं का सूत्रपात करता है । पुत्र एक माध्यम है जिसके द्वारा पिता यह सब करता है :

(१) ब्रह्याण्ड की सृष्टि तथा रख रखाव (१कुरिन्थियों ८:६; यूहन्ना १:३; कुलुस्सियों १:१६:१७);

(२) ईश्वरीय प्रकाश (यूहन्ना १:१; मत्ती ११:२७; यूहन्ना १६:१२-१५; प्रकाशित वाक्य १:१); तथा

(३) उद्धार (२कुरिन्थियों ५:१९; मत्ती १:२१; यूहन्ना ४:४२) । यह सारी वस्तुऐं पिता पुत्र के द्वारा करता है, जो कि उसके माध्यम के रूप में कार्य करता है :पवित्र आत्मा वो साधन है जिसके द्वारा पिता यह सब कार्य करता है ।

(१) ब्रह्याण्ड की सृष्टि तथा रख-रखाव (उत्पत्ति १:२; अय्यूब २६:१३; भजन संहिता १०४:३०); (२) ईश्वरीय प्रकाश (यूहन्ना १६:१२-१५; इफिसियों ३:५; २पतरस १:२१); (३) उद्धार (यूहन्ना ३:६; तीतुस ३:५; १पतरस १:२); तथा (४) यीशु के कार्य (यशायाह ६१:१; प्रेरितों के काम १०:३८)। इस तरह पिता यह सब कार्य पवित्र आत्मा की शक्ति के द्वारा करता है।

त्रिस्वरूप के विषय में कोई भी लोकप्रिय उदाहरण उसका पूर्ण शुद्ध वर्णन नहीं है । अण्डा (या सेब) इस बात पर खरा नहीं उतरता कि उसका खोल, सफेदी तथा जर्दी अण्डे के भाग हैं, स्वयं अण्डा नहीं है । पिता, पुत्र तथा पवित्र आत्मा ईश्वर के भाग नहीं हैं, उनमें से हर एक ईश्वर है । पानी का उदाहरण कुछ सीमा तक बेहतर है परन्तु फिर भी खरा नहीं उतरता । तरल, भाप तथा बर्फ पानी के रूप हैं । पिता, पुत्र तथा पवित्र आत्मा ईश्वर के रूप नहीं हैं, उनमें से हर एक ईश्वर है । इसलिये, यद्यपि यह उदाहरण हमें त्रिस्वरूप का चित्रण करते हैं, परन्तु चित्रण पूरी तरह से सही नहीं है । एक अपरिमित ईश्वर को सीमित उदाहरण के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । त्रिस्वरूप के ऊपर केन्द्रित होने के बजाए स्वयं से अधिक ईश्वर की महानता तथा अपरिमित उच्च व्यक्तित्व के ऊपर केन्द्रित होने का प्रयास करें । "आहा ! ईश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है ! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं ! प्रभु की बुद्धि की किसने जाना? या उसका मंत्री कौन हुआ?


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बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?    
 

क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?


प्रश्न: क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?

उत्तर:
क्रिश्चियन नामकरण संस्कार, बाइबल के अनुसार, एक विश्वासी के आंतरिक जीवन में घटित घटनाओं का बाह्य साक्ष्य है । क्रिश्चियन नामकरण संस्कार एक विश्वासी की पहचान को यीशु की मृत्यु, गाड़े जाने, तथा पुनरुत्थान के साथ समझाता है । बाइबल द्घोषणा करती है, "क्या तुम नहीं जानते, कि हम जितनों ने मसीह यीशु का नामकरण संस्कार लिया, तो उसकी मृत्यु का नामकरण संस्कार लिया? सो उस मृत्यु का नामकरण संस्कार पाने से हम उसके साथ गाड़े गए, ताकि जैसे मसीह पिता की महिमा के द्वारा मरे हुओं में से जिलाया गया, वैसे ही हम भी नए जीवन की तरह जीयें" (रोमियो ६:३-४) क्रिश्चियन बपतिस्में में पानी में डुबकी लगाने की क्रिया मसीह के साथ गाड़े जाने को दर्शाना है । पानी से बाहर निकलने की क्रिया मसीह का पुनरुत्थान दर्शाती है ।

क्रिश्चियन नामकरण संस्कार में, बपतिस्में से पहले एक व्यक्ति में दो आवश्यकायें को पूरा करना चाहियें : (१) नामकरण संस्कार लेने वाले व्यक्ति को यीशु मसीह पर अपने उद्धारकर्ता के रूप में भरोसा करना चाहिये, तथा (२) व्यक्ति को यह समझना चाहिये कि नामकरण संस्कार किस बात का प्रतीक होता है । अगर व्यक्ति प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता के रूप में जानता है, यह समझता है कि क्रिश्चियन नामकरण संस्कार सार्वजनिक तरीके से मसीह में उसके विश्वास का ऐलान करते हुए आज्ञाकारिता का एक कदम है, तथा नामकरण संस्कार पाने की इच्छा रखता है-तो फिर कोई कारण नहीं है कि उसको नामकरण संस्कार दिये जाने से रोका जा सके । बाइबल के अनुसार, क्रिश्चियन नामकरण संस्कार साधारणतया आज्ञाकारिता का एक कदम है, एक व्यक्ति के उद्धार के लिये केवल मसीह में विश्वास का सार्वजनिक ऐलान है । क्रिश्चियन नामकरण संस्कार महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आज्ञाकारिता का एक कदम है, सार्वजनिक रूप से मसीह में भरोसा तथा उसके प्रति प्रतिबद्धता तथा मसीह की मृत्यु, गाड़े जाने, तथा पुनरुत्थान की पहचान की घोषणा करके ।


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क्रिश्चियन नामकरण संस्कार का क्या महत्व है?    
 

विवाह पूर्व यौन संबंधों के बारे में बाइबल क्या कहती है?


प्रश्न: विवाह पूर्व यौन संबंधों के बारे में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर:
सारी अन्य प्रकार की यौन-अनैतिकताओं के साथ ही विवाह पूर्व संबंधों को पवित्र शास्त्र में लगातार दोषी ठहराया गया है (प्रेरितों के काम १५:२०; रोमियो १:२९; १कुरिन्थियों ५:१; ६:१३१८; ७:२; १०:८; २कुरिन्थियों १२:२१; गलतियों ५:१९; इफिसियों ५:३; कुलुस्सियों ३:५; १थिस्सलुनीकियो ४:३; यहूदा ७) । बाइबल विवाह पूर्व आत्मसंयम का समर्थन करती है । विवाह पूर्व यौन संबंध उतने ही गलत हैं जितना कि व्यभिचार तथा अन्य प्रकार की यौन अनैतिकताऐं, क्योंकि उन सब में यौन संबंध किसी ऐसे व्यक्ति के साथ होते हैं जिनसे आप विवाहित ना हों । एक पति तथा पत्नी के बीच यौन संबंधों ही परमेश्वर को मान्य है (इब्रानियों १३:४) ।

विवाह पूर्व यौन संबंध कई कारणो से समान्य हो गया है। अधिकतर हम यौन संबंधों के मन बहलाव के पहलू की ओर केन्द्रित रहते हैं, बिना उसके पुनर्जन्म के पहलू को पहचाने । हाँ, यौन संबंध आनन्ददायक होते हैं । परमेश्वर ने उनको इसी तरह का बनाया है । वो चाहता है कि पुरूष और स्त्री यौन क्रियाओं का आनन्द लें (विवाह की सीमाओं में रहकर) । यद्यपि, यौन-संबंधों का मूल उद्देश्य आनन्द नहीं है, परन्तु वस्तुतः प्रजनन है । परमेश्वर विवाह पूर्व यौन संबंधों को अवैद्य इसलिये नहीं घोषित करता कि वो हमसे हमारा आनन्द वंचित कर दे, परन्तु हमें उन अनचाही गर्भावस्थाओं से तथा उन बच्चों के जन्म से जिन्हें मॉ-बाप नहीं चाहते हैं या उनके लिए तैयार नहीं है को बचाना है । कल्पना करें कि हमारा संसार कितना अच्छा हो जायेगा अगर हम परमेश्वर के यौन संबंधों के प्रतिमान का अनुसरण करें : कम यौन प्रेषित रोग, कम कुऑरी माताऐं, कम अनचाही गर्भाव्स्थायें, कम गर्भपात वगैरह । आत्म-संयम ही परमेश्वर की एकमात्र नीति है जब विवाह पूर्व यौन संबंधों की बात आती है । आत्मसंयम जिंदगियॉ बचाता है, शिशुओं की रक्षा करता है, यौन संबंधों को उचित मूल्य देता है, तथा सबसे महत्वपूर्ण रूप से परमेश्वर को सम्मान देता है ।


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विवाह पूर्व यौन संबंधों के बारे में बाइबल क्या कहती है?    
 

क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?


प्रश्न: क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?

उत्तर:
आज के समय में इससे ज्य़ादा वाद-विवाद का कोई और विषय नहीं हैं जितना कि स्त्रियों के उपदेशों/प्रचारकों के रूप में सेवा करने का विषय हैं । परिणामस्वरूप यह बहुत महत्वपूर्ण हैं कि हम इस विषय को पुरुष बनाम स्त्री के रूप में ना देखें । ऐसी स्त्रियां हंं जो यह मानती हैं कि स्त्रियों को उपदेशकों (पादरियों) के रूप में सेवा नहीं करनी चाहिये तथा बाइबल स्त्रियों के सेवकाई करने पर प्रतिबंध लगाती है-तथा ऐसे पुरूष हैं जो मानते हैं कि स्त्रियां प्रचारकों के रूप में सेवा कर सकती है तथा सेवकाई के लिये स्त्रियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है । यह किसी श्रेष्ठता या भेदभाव का विषय नहीं है । यह बाइबल व्याख्या का विषय है । १तिमुथियुस २:११-१२ दावा करता है, "स्त्री को चुपचाप, पूरी अधीनता से सीखना चाहिये । और मैं कहता हूँ कि स्त्री ना उपदेश करें, और ना पुरुष पर आज्ञा चलाये, परन्तु चुपचाप रहें ।" कलीसियो में, परमेश्वर स्त्रियों तथा पुरुषों को भिन्न-भिन्न भूमिकायें सौंपता है । यह मनुष्य की रचना के तरीके का परिणाम है (१तिमुथियुस २:१३) तथा पाप के संसार में प्रवेश करने का तरीका (२तिमुथियुस २:१४) । परमेश्वर प्रेरित पौलुस के लेखन के द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर आत्मिक शिक्षा की अधिकारी होने से प्रतिबंधित करता है । यह स्त्रियों को उपदेशकों (पादरियों) के रूप में सेवा करने से मना करता है, जिसमें कि प्रचार करने से लेकर शिक्षा देना तथा पुरुषों पर आत्मिक अधिकार रखना शामिल हैं ।

स्त्रियों की सेवाकाई/ स्त्रियों के उपदेशक (पादरी) होने की इस दृष्टि पर कई "धारणा हैं । एक सामान्य धारणा यह है कि पौलुस स्त्रियों को शिक्षा देने पर प्रतिबंध इसलिए लगाता है कि पहली सदी में, स्त्रियॉ विशिष्ट रूप से अशिक्षित थी । हॉलाकि १तिमुथियुस २:११-१४ कही भी शैक्षिक स्तर के विषय में नहीं कहता है । अगर सेवाकाई के लिये शिक्षा ही योग्यता होती, तो यीशु के अधिकतर शिष्य इस योग्य नहीं होते । एक दूसरी सामान्य धारणा यह है कि पौलुस ने केवल इफिसियों की स्त्रियों को शिक्षा देने से मना किया था (१तिमुथियुस, तिमुथिसुस को लिखा गया था जो कि इफिसुस की कलीसिया का उपदेशक (पादरी) था) । इफिसुस का नगर अपने अरतीमुस के मन्दिर के लिये जाना जाता था, एक मिथ्या यूनानी/ रोमी देवी । अरतीमुस की उपासना के लिये स्त्रियॉ ही अधिकारी थी । हॉलाकि तिमुथियुस की पुस्तक कहीं भी अरतीमुस का वर्णन नहीं करती, ना ही पौलुस अरतीमुस की उपासना को १तिमुथिसुस २:११-१२ में प्रतिबंध का कारण बताता है ।

एक तीसरी सामान्य धारणा यह है कि पौलुस केवल पति तथा पत्नियों को संबोधित कर रहा है, पुरुषों तथा स्त्रियों को नहीं । १तिमुथियुस २:११-१४ में यूनानी शब्द पति तथा पत्नियों को संबोधित कर सकते हैं । कैसे भी हो, उन शब्दों का मूलभूत अर्थ पुरुष तथा स्त्री है । इससे आगे, वैसे ही यूनानी शब्द ८-१० पदों में प्रयोग किये गए हैं । क्या केवल पतियों को ही हाथों को उठाकर बिना क्रोध और विवाद के प्रार्थना करने को कहा गया है (पद ८)? क्या केवल पत्नियाँ ही शालीनता से, भले कामों से, परमेश्वर की भक्ति करेंगी (पद ९-१०)? निश्चित ही नहीं । पद ८-१० स्पष्ट रूप से सामान्य पुरूषों तथा स्त्रियों को संबोधित करता है, केवल पति तथा पत्नियों को ही नहीं । पद ११-१४ के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं है जो कि केवल पति तथा पत्नियों की ओर संकेत करे । स्त्री उपदेशकों/प्रचारकों की व्याख्या पर एक और बार-बार किये जाने वाले विवाद का संबंध मरियम, डेबोराह, हुल्दाह, प्रिसकिल्ला तथा फीबे, वगैरह से है-वो स्त्रियां जिन्होंने बाइबल में अगुवाई के पद संभाले हुए थे । यह प्रतिवाद कुछ विशेष तथ्यों को जानने में असमर्थ है । डेबराह के संबंध में यह है कि वह १३ न्यायियों में से एकमात्र स्त्री न्यायी थी । हुल्दाह के संबंध में है कि वह बाइबल में बताये गए दर्जनों भविष्यवक्ताओं में से एक मात्र स्त्री भविष्यवक्ता थी । मरियम का मार्गदर्शन से संबंध उसका मूसा तथा हारून की बहन होना था । राजाओं के समय में दो सबसे महत्वशाली स्त्रियां एतालिय्याह तथा ईज़ेबेल-प्रेरितों के काम की पुस्तक अध्याय १८ में प्रिसक्ल्ला तथा अक्विला को मसीह के वफादार सेवकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्रिसकिल्ला का नाम पहले लिया गया है, संभवतः यह संकेत करते हुए कि वो सेविकाई में अपने पति से अधिक महत्वशाली थी । प्रिसकिल्ला का सेवकाई कार्य में भाग लेने का कहीं भी वर्णन नहीं किया गया है जो कि (१तिमुथियुस २:११-१४) के विरोध में है । प्रिसकिल्ला तथा अक्विला, अपुल्लोस को अपने द्घर लाये थे तथा उसे अनुयायी बनाया था, उसे परमेश्वर का वचन अधिक अच्छी प्रकार से समझाते हुए (प्रेरितों के काम १८:२६)

रोमियो १६:१ में जबकि फीबे को 'सेविका' की जगह 'डीकनेस' (महिला पादरी) माना गया है-यह इस बात को संकेत नहीं करता कि फीबे कलीसियो में शिक्षिका थी । "शिक्षा देने में समर्थ" एक योग्यता है जो प्राचीनों (अध्यक्ष) को दी जाती है, डीकनों को नहीं (१तिमुथियुस ३:१; तीतुस १:६-९) । प्राचीनों/बिशपों/डीकनो का वर्णन "एक ही पत्नी का पति," 'जिन के लड़के वाले विश्वासी हों," "आदर के योग्य ।" इसके साथ-साथ, (१तिमुथियुस ३:१-१३) तथा तितुस (१:६-९), में पुरूषवाचक सर्वनामों का प्राचीनो/बिशपों/डीकनों के संबोधन के लिये अनन्य रूप से प्रयोग किया गया है ।

१तिमुथियुस २:११-१४ का स्वरूप "कारण" को पूर्णतया स्पष्ट बनाता है । पद १३ "क्योंकि" से शुरू होता है और उस "कारण" को बताता है जो कि पौलुस ने पद ११-१२ में कहा है । स्त्रियॉ क्यों उपदेश ना दें तथा पुरूषों पर आज्ञा ना चलायें? क्योंकि आदम की रचना हव्वा से पहले की गई थी । तथा आदम बहकाया नहीं गया था; स्त्री बहकाने में आई थी ।" यह कारण है । परमेश्वर ने पहले आदम को बनाया तथा फिर हव्वा को बनाया, कि वो आदम की "सहायक" हो । सृष्टि का यह क्रम मानवजाति में परिवार में पूरे संसार पर लागू होता है (इफिसियों ५:२२-२३) तथा कलीसिया में भी । इस वास्तविकता का कि हव्वा बहकाई गई थी, को भी एक कारण के रूप में लिया जाता है कि स्त्रियों को उपदेशकों के रूप में सेवा करना या पुरुषों के ऊपर आत्मिक नियंत्रण रखना प्रतिबंधित है । यह बात कुछ लोगों को यह मानने के ओर ले जाती है कि स्त्रियों को शिक्षा नहीं देनी चाहिये क्योंकि उन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है । यह धारणा वाद विवाद का विषय है ---- परन्तु अगर स्त्रियॉ आसानी से बहकावे में आ जाती है, तो उन्हें बालकों को शिक्षा देने की अनुमति क्यों दी जाती है (जो कि आसानी से बहकाये जा सकते हैं) तथा अन्य स्त्रियों को (जो कि कल्पनानुसार अधिक आसानी से बहकाई जा सकती है)? यह वो नहीं है जो शास्त्र कहता है । स्त्रियों को उपदेश देने तथा पुरुषों के ऊपर आत्मिक नियंत्रण रखने के लिये मना किया गया है क्योंकि हव्वा बहकाई गई थी । परिणामस्वरूप, परमेश्वर ने पुरुषों को कलीसिया में उपदेश देने के मूल अधिकार दिये है ।

स्त्रियाँ सत्कारशीलता, दया, शिक्षा तथा सहायता के वरदानों में श्रेष्ठ है । एक कलीसिया की अधिकतर सेवकाई स्त्रियों पर निर्भर है । कलीसिया की स्त्रियॉ सार्वजनिक प्रार्थनाओं या भविष्यवाणी करने (१कुरिन्थियों ११:५) के लिये प्रतिबंधित नहीं है, केवल पुरुषों के ऊपर आत्मिक उपदेश के अधिकार के लिए है । बाइबल में कहीं भी स्त्रियों को पवित्र आत्मा के वरदानों का अभ्यास करने के लिए नहीं रोकती (१कुरिन्थियों अध्याय १२) । स्त्रियों को भी, पुरुषों जितना, अन्यों की सेवा करने के लिये तथा आत्मा के फल को (गलतियों ५:२२-२३) प्रदर्शित करने के लिए तथा खोए हुओं को सुसमाचार की उदघोषणा करने के लिये बुलाया गया है (मत्ती २८:१८-२०; प्रेरितों के काम १:८; १पतरस ३:१५) ।

परमेश्वर ने यह आदेश दिया है कि केवल पुरुष ही कलीसिया में आत्मिक शिक्षा के पदों को संभालेंगे । यह इसलिये नहीं है कि पुरुष आवश्यक रूप से बेहतर शिक्षक होते हैं, या स्त्रियॉ निकृष्ट या कम बुद्धिमान (जब कि ऐसा नहीं है) होती है । यह केवल एक साधारण तरीका है जिसे परमेश्वर ने कलीसिया के कार्य करने के लिये बनाया है । पुरुषों को अपने जीवन में तथा अपने शब्दों के द्वारा आत्मिक मार्गदर्शन में एक उदाहरण बनाना है । स्त्रियों को एक कम अधिकारों वाली भूमिका संभालनी है । स्त्रियों को अन्य स्त्रियों को शिक्षा देने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है (तीतुस २:३-५) । बाइबल स्त्रियों के बालकों को शिक्षा देने पर भी प्रतिबंध नहीं लगाती । केवल एक कार्य जिसके लिये स्त्रियॉ प्रतिबंधित हैं वो है पुरुषों के ऊपर आत्मिक अधिकार रखना । तर्क की दृष्टि से इसमें वो स्त्रियॉ शामिल है जो कि उपदेशकों/प्रचारकों के रूप में सेवा कर रहीं है । यह किसी भी तरह से स्त्रियों को कम महत्व का नहीं बताता परन्तु उन्हें सेवकाई का अधिक मौका देता है उस सहमति में कि परमेश्वर ने उन्हें कैसे वरदान दिये हैं ।


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क्या स्त्रियों को उपदेशों (पादरियों)/प्रचारकों के रूप में सेवा करनी चाहिये?    
 

तलाक तथा पुनर्विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?


प्रश्न: तलाक तथा पुनर्विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर:
सबसे पहले, चाहे कोई व्यक्ति तलाक के विषय में कैसी ही दृष्टि रखें, बाइबल में से (मलाकी २:१६a) इन शब्दों को स्मरण रखना महत्वपूर्ण है, "क्योंकि इस्राएल का परमेश्वर यह कहता है, कि मैं स्त्री-त्याग से घृणा करता हूँ।" बाइबल के अनुसार, परमेश्वर की योजना यह है कि विवाह एक आजीवन प्रतिबद्धता (वादा) हो । "सो वे अब दो नहीं, परन्तु एक तन है : इसलिये परमेश्वर ने जिसे जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग ना करे" (मत्ती १९:६) । हालांकि, परमेश्वर यह महसूस करता है, कि जब विवाह दो पापी मनुष्यों को शामिल करता है, तो तलाक हो सकता है । पुराने नियम में, तलाकशुदाओं, विशेषकर स्त्रियों के लिये उसने कुछ नियम रखे (व्यवस्थाविवरण २४:१-४) । यीशु ने यह प्रकट किया कि यह नियम लोगों के हृदयों की कठोरता के कारण दिये गए, इसलिये नहीं कि वो परमेश्वर की इच्छा थी (मत्ती १९:८) ।

यह विवाद कि क्या बाइबल के अनुसार तलाक तथा पुनर्विवाह की अनुमति है, मूल रूप से मत्ती ५:३२ तथा १९:९ में यीशु के कहे शब्दों पर घूमता है । यह उक्ति, "व्यभिचार के सिवाय," पवित्रशास्त्र में एकमात्र ऐसी बात है जो तलाक तथा पुनर्विवाह के लिए संभवतः परमेश्वर की ओर से अनुमति देती हैं । कई व्याख्या करने वाले इस "अपवाद स्वरूप वाक्यांश" को "मंगनी" की अवधि के दौरान किये गए "व्यभिचार" से संबंधित समझते हैं । यहूदियों के रीति-रिवाज में, एक पुरूष तथा स्त्री को शादी शुदा समझा जाता था जब तक उन की मंगनी हो नहीं जाती थी । मंगनी की उस अवधि में व्यभिचार करना उस समय तलाक का एकमात्र वैध कारण हो सकता है ।

हाँलाकि, यूनानी शब्द से भाषांतरित "व्यभिचार" एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ किसी भी प्रकार की यौन-अनैतिकता से है । उसका अर्थ पर-स्त्री/पर-पुरुष गमन, वेश्यावृत्ति, आदि हो सकता है । यीशु संभवतः यह कह रहा है कि तलाक अनुमतिदायक तब ही है अगर कोई यौन अनैतिकता होती है । यौन संबंध विवाह के बंधन का एक पूर्ण भाग है, "वे दोनों एक तन होंगे" (उत्पत्ति २:२४; मत्ती १९:५; इफिसियों ५:३१) । इसलिए, उस बंधन का विवाह से अलग यौन संबंधों के द्वारा तोड़ा जाना तलाक के लिये एक अनुमतिदायक कारण हो सकता है । अगर ऐसा है तो इस अनुच्छेद में यीशु के दिमाग में पुनर्विवाह भी है । यह कथन कि "दूसरी से ब्याह करें" (मत्ती १९:९) यह प्रकट करता है कि तलाक तथा पुनर्विवाह की अपवाद स्वरूप कथन को देखते हुए अनुमति है, उसकी जो भी व्याख्या की गई हो । परन्तु यह जानना एक महत्वपूर्ण बात है कि केवल र्निदोष को ही पुनर्विवाह की अनुमति है । हालांकि पवित्रशास्त्र में इसका वर्णन नहीं किया गया है, तलाक के बाद पुनर्विवाह की अनुमति उस व्यक्ति के प्रति परमेश्वर की दया है जिसके विरुद्ध पाप किया गया, उसके लिये नहीं जिसने यौन अनैतिकता की। कुछ ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जहाँ पर "दोषी पक्ष" को पुनर्विवाह की अनुमति हो-पर ऐसा कोई विषय पवित्रशास्त्र मं् नहीं सिखाया गया है ।

कुछ लोग (१कुरिन्थियों ७:१५) को एक अन्य "अपवादस्वरूप" समझते हैं, जो कि पुनर्विवाह की अनुमति देता है, अगर कोई अविश्वासी पति/पत्नी एक विश्वासी को तलाक देते हैं । हालांकि, संदर्भ में पुनर्विवाह का वर्णन नहीं किया गया है, परन्तु केवल यह कहता है कि अगर कोई अविश्वासी पति/पत्नी अलग होना चाहते हैं तो विश्वासी विवाह को बनाये रखने के लिये बाध्य नहीं है । अन्य इस बात पर जोर देते हैं कि दुर्वव्यवहार (दंपत्ति या बाल) बाइबल पर सूचीबद्ध नहीं होने पर भी तलाक के लिए वैध कारण है। हालंकि ये एक सही कारण के रूप में रखा जा सकता है, पर ईश्वर का वचन समझना बुद्धिमानी नहीं है।

कभी-कभी अपवाद स्वरूप उपधाराओं पर चर्चा में हार जाने के पीछे वास्तविकता यह है कि "व्यभिचार" (वैवाहिक व्याभिचार) का तात्पर्य जो भी वो, वो तलाक की अनुमति है, आवश्यकता नहीं । अगर व्यभिचार हो भी जाता है, तो दंपत्ति, परमेश्वर के अनुग्रह से, क्षमा करना सीख सकता है तथा अपने विवाह का पुनः निर्माण कर सकता है । परमेश्वर ने तो हमें कितनी अधिक बातों के लिए क्षमा किया है । निश्चित रूप से हम उसके उदाहरण का अनुसरण कर सकते हैं तथा व्याभिचार का पाप भी क्षमा कर सकते हैं (इफिसियों ४:३२) । हलांकि, कई उदाहरणों में एक विवाहिती पश्चाताप नहीं करता तथा यौन अनैतिकता जारी रखता है । संभवतया यहां पर (मत्ती १९:९) लागू किया जा सकता है । कई लोग तलाक के बाद शीघ्र पुनर्विवाह की ओर देखते हैं जबकि परमेश्वर उन्हें अकेला रहने की इच्छा रख सकता है । परमेश्वर कभी-कभी एक व्यक्ति को अकेले रहने देना चाहता है जिससे कि उसका ध्यान ना बंटे (१कुरिन्थियों ७:३२-३५) । कुछ परिस्थितियों में तलाक के बाद पुनर्विवाह एक विकल्प हो सकता है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वो एकमात्र विकल्प है ।

यह दुखद है कि धार्मिक क्रिश्चियनों में तलाक की दर भी लगभग उतनी ही है जितनी कि अविश्वासियों के संसार में । बाइबल इस बात को प्रचुरता से स्पष्ट करती है कि परमेश्वर स्त्री-त्याग (तलाक) से घृणा करता है (मलाकी २:१६) तथा समझौता और क्षमा एक विश्वासी के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए (लूका ११:४; इफिसियो ४:३२) । हालांकि, परमेश्वर यह जानता है कि तलाक होंगे, उसकी अपनी सन्तानों में भी । एक तलाकशुदा तथा/या पुर्नविवाह विश्वासी को अपने प्रति परमेश्वर के प्रेम को कम नहीं समझना चाहिये, अगर उसका तलाक तथा पुनर्विवाह (मत्ती १९:९) के अपवाद स्वरूप वाक्यांश के अधीन ना भी आता हो । परमेश्वर अक्सर मसीहियों की पापपूर्ण अवज्ञा को भी महान भलाई के लिये उपयोग करता है ।


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तलाक तथा पुनर्विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?    
 

दशमांश देने के विषय में बाइबल क्या कहती है?


प्रश्न: दशमांश देने के विषय में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर:
दशमांश देना एक ऐसा विवाद विषय है जिसके साथ कई क्रिश्चियन संघर्षरत हैं । कई कलीसियाओं में दशमांश देने को अति महत्व दिया गया है । ठीक उसी समय, कई क्रिश्चियन प्रभु को भेंट देने के संबंध में इस बाइबल उपदेश के प्रति समर्पण से इन्कार करते हैं । दशमांश देने का सभिप्राय - एक आनन्द है, एक आशीष है । दुर्भाग्य से, आज के समय में, कलीसिया में ऐसे उदाहरण बहुत कम बचे हैं ।

दशमांश देना पुराने नियम का विचार है । दशमांश देना उस व्यवस्था की एक माँग थी जिसमें सारे इज़रायलियों को अपनी कमाई तथा उपज में से १० प्रतिशत आराधनालयों तथा मंदिरों में देना पड़ता था (लैव्यव्यवस्था २७:३०; गिनती १८:२६; व्यवस्थाविवरण १४:२४; २ इतिहास ३१:५) । कुछ लोग पुराने नियम के अनुसार दशमांश देने को याजकों तथा लेवियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कर-प्रणाली के रूप में इस्तेमाल करते थे । नया नियम कहीं आज्ञा नहीं देता, या सलाह तक नहीं देता कि एक कानूनी तरह के दशमांश देने की प्रणाली के प्रति क्रिश्चियन समर्पण करें । पौलुस कहता है कि विश्वासियों को कलीसिया की सहायता के लिये अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अलग कर देना चाहिये (१कुरिन्थियों १६:१-२) ।

नये नियम से कमाई में से अलग रखने का कोई निश्चित प्रतिशत के बारे में कहीं नहीं कहता, परन्तु केवल यह कहता है कि वह "अपनी आमदनी के अनुसार" हो (१कुरिन्थियों १६:२) । क्रिश्चियन कलीसिया ने पुराने नियम के दशमांश की १० प्रतिशत की गिनती को अनिवार्यता से ले लिया तथा उसको मसीहियों को अपनी भेंटें देने के लिये एक "न्यूनतम" के रूप में लागू कर दिया । हलांकि, मसीहियों को हमेशा दशमांश देने के लिये अपने आप को बाध्य नहीं समझना चाहिये । वो तब दें जब वो समर्थ हों "अपनी आमदनी के अनुसार"। कभी-कभी इसका अर्थ दशमांश से अधिक देना हो जाता है, कभी-कभी इसका अर्थ दशमांश से कम हो सकता है । यह सब क्रिश्चियन की सामर्थ तथा कलीसिया की आवश्यकता पर निर्भर करता है । हर एक क्रिश्चियन को लगन से प्रार्थना करनी चाहिये तथा परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये यह जानने के लिये कि क्या वो दशमांश देने में वो भागीदारी करे तथा उसे कितना देना चाहिये (याकूब १:५)। "हर एक जन जैसा मन में ठाने वैसा ही दान करें; न कुठ़-कुठ़ के, और न दबाव से, क्योंकि परमेश्वर हर्ष से देने वालों से प्रेम रखता है" (२कुरिन्थियों ९:७) ।


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दशमांश देने के विषय में बाइबल क्या कहती है?    
 

अंतर्जातीय विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?


प्रश्न: अंतर्जातीय विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर:
पुरातन व्यवस्था ने इज़रायलियों को अंतर्जातीय विवाह करने की मनाही की थी (व्यवस्थाविवरण ७:३-४) । इसका कारण यह है कि अगर इजरायलियों ने मूर्ति पूजकों, विधर्मियों या नास्तिकों से अंतर्जातीय विवाह किया तो वे सत् से मार्गभ्रष्ट हो जायेंगे । नए नियम में एक ऐसा ही सिद्धांत रखा गया है, परन्तु काफी भिन्नता के स्तर पर- "अविश्वासियों के साथ असमान जुए में ना जुतो, क्योंकि धार्मिकता और अधर्म का क्या मेल-जोल? या ज्योति और अंधकार की क्या संगति ?" (२कुरिन्थियों ६:१४) । जैसे कि इज़रायलियों (एक सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले) को अविश्वासियों के साथ विवाह नहीं करने की आज्ञा दी गई थी, वैसे ही मसीहियों (एक सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले) को अविश्वासियों के साथ विवाह नहीं करने की आज्ञा दी गई है । विशेष रूप से इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये, बाइबल यह नहीं कहती कि अंतर्जातीय विवाह गलत है ।

एक व्यक्ति को उसके चरित्र के अनुसार परखना चाहिये, ना कि उसकी चमड़ी के रंग से । हम सब को ही इस बात से सचेत रहना है कि हम किसी के साथ भी पक्षपात ना दिखाएं, ना ही पूर्वाग्रही या अन्यों के प्रति जातिवादी हो (याकूब २:१-१०, विशेष रूप से पद 1 तथा ९ देखें) । जीवन-साथी चुनने के लिए एक पुरुष या स्त्री का स्तर हमेशा इस बात को देखते हुए होना चाहिये कि जिस व्यक्ति में वो इच्छुक है वो मसीही हो (२कुरिन्थियों ६:१४), जिसने यीशु मसीह में विश्वास करके पुनः जन्म लिया हो (यूहन्ना ३:३-५) । मसीह में विश्वास, चमड़ी के रंग में नहीं, एक जीवन साथी चुनने का बाइबल स्तर है । अंतर्जातीय विवाह सही या गलत होने का विषय नहीं है, परन्तु ज्ञान, विवेकशीलता तथा प्रार्थना का है।

अंतर्जातीय विवाह पर सजगता से विचार करने का एकमात्र कारण यह है कि मिली जुली जाति के जोड़े कुछ कठिनाईयों का अनुभव कर सकते हैं जो कि लोगों को उनको स्वीकार करने में परेशानी होने के कारण होती है । कई अंतर्जातीय दंपत्तियों को भेदभाव तथा उपहास का अनुभव होता है, यहॉ तक कि कभी-कभी उन के स्वयं के परिवारों के द्वारा भी । कुछ अंतर्जातीय दंपत्तियों को कठिनाईयों का अनुभव होता है जब उनकी सन्तानों का रंग माँ-बाप से तथा/या भाई बहनों से भिन्न होता है । एक अंतर्जातीय दंपत्ति को इन बातों को विचार में रखने तथा उनके लिये तैयार रहने की आवश्यकता है, अगर वो विवाह करने का निर्णय लेते हैं । पुनः हॉलाकि, एकमात्र बाइबल प्रतिबंध कि एक क्रिश्चियन को किस से विवाह करना चाहिये यह है कि क्या दूसरा व्यक्ति क्रिश्चियन की जाति का सदस्य है?


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अंतर्जातीय विवाह के विषय में बाइबल क्या कहती है?    
 

अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?


प्रश्न: अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?

उत्तर:
१पतरस ३:१८-१९ व्याख्या करता है, "इसलिये कि मसीह ने भी, अर्थात अधर्मीयों के लिये धर्मी ने पापों के कारण एक बार दुख उठाया, ताकि हमें परमेश्वर के पास पहुचाये : वह शरीर के भाव से तो द्घात किया गया, पर आत्मा के भाव से जिलाया गया । उसी में उस ने जाकर कैदी आत्माओं को भी प्रचार किया ।"

पद १८ में वाक्यांश "आत्मा के भाव," का शब्द-विन्यास पूर्ण रूप से वाक्यांश "शरीर के भाव" जैसा है । इसलिये यह सबसे अच्छा प्रतीत होता है कि "आत्मा" शब्द को उसी क्षेत्र से संबंद्ध किया जाये कि शब्द "शरीर" है । शरीर और आत्मा मसीह के शरीर और आत्मा है । शब्द "जिलाया गया" "आत्मा ने भाव से" इस सत्य की ओर इशारा करते हैं कि, मसीह के पापों को सहने तथा मृत्यु ने उसकी मानव आत्मा को पिता से अलग कर दिया था (मत्ती २७:४६) । अंतर शरीर और आत्मा में है, जैसा कि (मत्ती २७:४१) में है तथा रोमियो १:३-४ में है, यीशु के शरीर तथा पवित्र आत्मा में नहीं है । जब पाप के लिये यीशु का प्रायश्चित पूरा हो गया, उसकी आत्मा ने वो मेल-जोल फिर ग्रहण कर लिया जो टूट गया था ।

पहला पतरस ३:१८-२२ यीशु के दुख उठाने (पद १८) तथा उसकी महिमा (पद २२) के बीच एक आवश्यक संबंध की व्याख्या करता है । केवल पतरस एक निश्चित सूचना देता है कि दोनों द्घटनाओं के बीच में क्या हुआ था । पद १९ में शब्द "प्रचार" वो नए नियम में एक साधारण शब्द नहीं है जो कि सुसमाचार के उपदेशों की व्याख्या करता हो । उसका साहित्यिक अर्थ है सूचना की द्घोषणा करना । यीशु ने दुख उठाया तथा क्रूस पर मरा, तथा उसका शरीर मृत हो गया, तथा उसकी आत्मा मर गई जब उसे पाप बनाया गया । परन्तु उसकी आत्मा को जीवित किया गया तथा उसने उसे पिता को लौटा दिया । पतरस के अनुसार, अपनी मृत्यु तथा अपने पुनरूत्थान के बीच में किसी समय यीशु ने कैद की हुई आत्माओं में जाकर द्घोषणा की ।

पहली बात यह कि, पतरस ने लोगों का उल्लेख 'जीवात्माओं' के रूप में किया "आत्माओं के रूप में नहीं (१पतरस ३:२०) । नए नियम में शब्द "आत्मा" स्वर्गदूतों या दुष्टों के लिये किया जाता था, मनुष्यों के लिये नहीं; तथा पद २२ उसका अर्थ लिये हुए प्रतीत होता है । और यह भी, कि बाइबल में कहीं भी हमको यह नहीं बताया गया है कि यीशु नरक में भी गया । प्रेरितों के काम २:३१ कहता है कि वह पाताल गया, परन्तु "पाताल" नरक नहीं है । "पाताल" शब्द उस अस्थाई जगह के संबंध में है जहॉ मुर्दों को छोड़ा जाता है तथा वो पुनरुत्थान के दिन की प्रतीक्षा करते हैं । प्रकाशित वाक्य २०:११-१५, में या में, दोनों के बीच में स्पष्ट भेद बताता है । नरक एक स्थाई तथा निर्यायक जगह है खोए हुओं के लिये । पाताल (अधोलोक) एक अस्थाई जगह है ।

हमारे प्रभु ने पिता को अपनी आत्मा वापस दे दी, मरा, तथा मृत्यु और पुनरुत्थान के बीच में किसी समय, मुर्दों के राज्य में गया जहॉ उसने जीव आत्माओं को संदेश दिया (गिरे हुए स्वर्गदूत; यहूदा ६ देखें) जो कि कैसे ना कैसे नूह के समय की बाढ़ से संबंधित थे । पद २० इसको स्पष्ट करता है १पतरस हमें यह नहीं बताता कि उसने इन कैद की हुई जीवआत्माओं को क्या द्घोषणा करी, परन्तु वो उद्धार का संदेश नहीं हो सकता क्योंकि स्वर्गदूतों का उद्धार नहीं हो सकता (इब्रानियों २:१६) । वो संभवतया शैतान तथा उसके समुह के ऊपर विजय की द्घोषणा थी (१पतरस ३:२२; कुलुस्सियों २:१५) । इफिसियों ४:८-१० भी यह प्रकट करता प्रतीत होता है कि मसीह "स्वर्गलोक" (लूका १६:२०; २३:४३) गया तथा अपने साथ स्वर्ग में उन सब को ले गया जिन्होंने उसकी मृत्यु से पहले उस पर विश्वास किया था । अनुच्छेद बहुत अधिक ब्योरा नहीं देता कि क्या द्घटित हुआ था ।

इसलिये, कुल मिलाकर, बाइबल पूरी तरह से स्पष्ट नहीं करती कि मसीह ने अपनी मृत्यु तथा पुनरूत्थान के मध्य तीन दिन तक क्या किया । यद्यपि, ऐसा प्रतीत होता है कि वो गिरे हुए स्वर्गदूतों पर तथा/या अविश्वासियों पर विजय का प्रचार कर रहा था । जो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं वो यह है कि यीशु लोगों को उद्धार पाने का दूसरा अवसर नहीं दे रहा था । बाइबल हमें बताती है कि मृत्यु के पश्चात हमें न्याय का सामना करना पड़ता है (इब्रानियों ९:२७), दूसरे अवसर का नहीं । वहॉ वास्तव में कोई परिनिश्चायक स्पष्ट उत्तर नहीं है कि यीशु अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य क्या कर रहा था । शायद यह उन रहस्यों में से एक है जो हम समझेंगे जब एक बार हम महिमा तक पहुचेंगे ।


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अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?    
 

आत्मा की अगुवाई से बोलने का क्या अर्थ है? क्या आत्मा की अगुवाई में बोलने का वरदान आज भी है?


प्रश्न: आत्मा की अगुवाई से बोलने का क्या अर्थ है? क्या आत्मा की अगुवाई में बोलने का वरदान आज भी है?

उत्तर:
आत्मा में अगुवाई करने की पहली घटना प्रेरितों के काम २:१-४ में पिन्तेकुस्त के दिन घटित हुई । प्रेरित भीड़ के साथ सुसमाचार बांट रहे थे, उनसे उनकी भाषा में बातें करके; "परन्तु अपनी-अपनी भाषा में उन से परमेश्वर के बड़े-बड़े कामों की चर्चा सुनते हैं !" (प्रेरितों के काम २:११) । यूनानी शब्द 'बोलने' का साहित्यिक अर्थ 'भाषा' है । इसलिये बोलने का वरदान किसी को उसकी भाषा में उपदेश देना है, उस भाषा को बोलकर जो व्यक्ति को नहीं आती है । (१कुरिन्थियों १२-१४), जहॉ पौलुस आत्मिक वरदानों की चर्चा कर रहा था, उसने टिप्पणी करी, "इसलिये हे! भाईयों यदि मैं तुम्हारे पास आकर अन्य भाषा में बातें करूँ, और प्रकाश या ज्ञान, या भविष्यवाणी, या उपदेश की बातें तुम से ना कहूँ, तो मुझे तुम से क्या लाभ होगा?" (१कुरिन्थियों १४:६) । प्रेरित पौलुस के अनुसार, तथा प्रेरितों के काम में वर्णन की गई भाषा से सहमत होकर, आत्मा की अगुवाई में बोलना उस व्यक्ति के लिए बहुमूल्य है जो परमेश्वर का संदेश अपनी भाषा में सुनता है, परन्तु अन्य सभी के लिए महत्वहीन है-जब तक कि उसका भाषांतर/अनुवाद ना हुआ हो ।

बोलने का भाषांतर करने का वरदान प्राप्त करने वाला व्यक्ति (१कुरिन्थियों १२:३०) यह समझ सकता है कि आत्मा की बोली बोलने वाला व्यक्ति क्या कह रहा है जबकि वह स्वयं बोली जा रही भाषा को नहीं जानता है । भाषांतर करने वाला व्यक्ति फिर आत्मा की बोली बोलने वाले के संदेशों को सब को बताता है, जिससे कि सब समझ सकें । "इस कारण जो अन्य भाषा बोले, तो वह प्रार्थना करें, उसका अनुवाद भी कर सकें ।" (१कुरिन्थियों १४:१३) । पौलुस का अनुवाद ना की हुई भाषाओं के बारे में निष्कर्ष शक्तिशाली है, "परन्तु कलीसिया में अन्य भाषा में दस हज़ार बाते कहनें से मुझे यह और भी अच्छा जान पड़ता है, कि औरों के सिखाने के लिए बुद्धि से पॉच ही बातें कहूँ" (१कुरिन्थियों १४:९) ।

क्या आत्मा की अगुवाई में बोलने का वरदान आज भी है? (१कुरिन्थियों १३:८) जबान के उपहार का शेष होने का उल्लेख करता है यद्यपि ये (१कुरिन्थियों १३:10) में पूर्णता की पहूँच को शेष के साथ संबंद्ध करता है। ज्ञान तथा धर्मउपदेश में भाषा के विभेद के बारे में कुछ लोग इंगित करते है। जबान की सीमा तथा ज्ञान की सीमा के साथ पूर्णता को पाना आवश्यक है। जबकि संभव है ये तथ्यों से स्पष्ट नहीं होता है। कुछ Isaiah 28:11 and Joel 2:28-29 को प्रमाण के रूप में उल्लेखित करते हुए मत देते हैं कि आत्मा की आवाज ईश्वर का निर्णय होता है। 1कुरिथिन्यों 14:22 जबान को अविश्वासियों का संकेत के रूप वर्णन करता है। इस तर्क के अनुसार, जबान का उपहार ज्यूज के लिए चेतावनी था कि ईश्वर इजरायल को दंडित करने वाला है क्योंकि उसने क्राइस्ट को मसीहा मानने से इन्कार कर दिया था। इसलिए 70 ए.डी में रोम के द्वारा जेरूसलम का विनाश के द्वारा ईश्वर ने इजरायल को दंडित किया और उसके बाद आत्मा की आवाज कभी भी लक्ष्यित उद्देश्य को प्राप्त कर पाया। हालंकि ये विचार संभव है, जबान की प्राथमिक उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए रूकावट आवश्यक रूप से नहीं चाहिए। धर्मशास्त्र निष्कर्ष रूप से कभी भी इस बात पर जोर नहीं देता है कि जबान में आत्मा की आवाज शेष हो चुका है।

और उसी समय, अगर आत्मा की भाषा बोलने का वरदान, आज के समय में कलीसिया में सक्रिय होता, तो वो पवित्रशास्त्र की सहमति के द्वारा पूरा किया जाता । वह एक वास्तविक तथा बुद्धिमानी वाली भाषा होगी (१कुरिन्थियों १४:१०) वह एक अन्य भाषा वाले व्यक्ति के साथ परमेश्वर का वचन बॉटने के उद्देश्य के लिए होगी (प्रेरितों के काम २:६-१२) । वो उस आज्ञा में सहमति के साथ होगी जो परमेश्वर ने प्रेरित पौलुस के द्वारा दी थी, "यदि अन्य भाषा में बातें करनी हों, तो दो-दो, या बहुत हों तो तीन-तीन जन बारी-बारी बोलें, और एक व्यक्ति अनुवाद करे । परन्तु यदि अनुवाद करने वाला नहीं हो, तो अन्य भाषा बोलने वाला कलीसिया में शान्त रहे, और अपने मन से, और परमेश्वर से बातें करे" (१कुरिन्थियों १४:२७-२८) । वो (१कुरिन्थियों १४:३३) के अधीन भी होगी, "क्योंकि परमेश्वर गड़बड़ी का नहीं, परन्तु शान्ति का कर्ता है, जैसा पवित्र लोगों की सब कलीसियाओं में है ।"

परमेश्वर निश्चित रूप से एक व्यक्ति को आत्मा की भाषा बोलने का वरदान दे सकता है जिससे कि वह दूसरी भाषा बोलने वाले व्यक्ति के साथ संवाद करने में समर्थ बने । पवित्र आत्मा आत्मिक वरदानों को बॉटने में संप्रभु है (१कुरिन्थियों १२:११) । कल्पना करें, कि मिशनरी लोग कितने ज्य़ादा अधिक उत्पादक हो जायेंगे, अगर उन्हें भाषा सीखने के लिए स्कूल ना जाना पड़े, तथा वो एकदम से लोगों से उनकी अपनी भाषा में बोलने में समर्थ हों । हॉलाकि परमेश्वर ऐसा करता प्रतीत नहीं होता । आज के समय में भाषायें उस रूप में नहीं पायी जाती जैसे कि नए नियम के समय में थी इस सत्य के बाद भी कि वो अत्यधिक उपयोगी होती । विश्वासियों की एक विशाल संख्या जो कि आत्मा की भाषा बोलने के वरदान के अभ्यास का दावा करती है ऐसा पवित्रशास्त्र की सहमति के साथ नहीं करता जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है । यह वास्तविकतायें एक निष्कर्ष पर ले जाते हैं कि भाषाओं का वरदान समाप्त हो चुका है, या फिर आज के समय में कलीसिया के प्रति परमेश्वर की योजना में बहुत ही न्यून है ।

जो लोग स्वयं के सुधार के लिये भाषा के वरदान को "प्रार्थना की भाषा" के रूप में मानते हैं, वो अपना दृष्टिकोण (१कुरिन्थियों १४:४) तथा/या १४:२८ से पाते हैं, "जो अन्य भाषा में बाते करता है, वह अपनी ही उन्नित करता है; परन्तु जो भविष्यवाणी करता है वह कलीसिया की उन्नति करता है ।" पूरे अध्याय १४ में पौलुस भाषाओं के अनुवाद करने की महत्ता पर ज़ोर दे रहा है, देखें १४:५-१२। जो पौलुस पद ४ में कह रहा है वो यह है, "जो अन्य भाषा में बातें करता है वह अपनी ही उन्नति करता है; परन्तु जो भविष्यवाणी करता है, वह कलीसिया की उन्नति करता है ।" नए नियम में "भाषा में प्रार्थना" करने के कहीं भी विशेष निर्देश नहीं दिये गये हैं ।" नए नियम में "भाषा में प्रार्थना" करने का उद्देश्य, या "भाषा में प्रार्थना" करने वाले व्यक्ति का कहीं भी नहीं दिया गया है ।" इसके अतिरिक्त अगर "भाषा में प्रार्थना" स्वयं के सुधार के लिए है, तो क्या यह उन लोगों के प्रति अनुचित नहीं होगा जिनके पास भाषाओं का वरदान नहीं है तथा जो, फलस्वरूप स्वयं का सुधार करने में समर्थ नहीं हैं? (१कुरिन्थियों १२:२९-३०) स्पष्ट रूप से संकेत देता है कि सभी के पास आत्मा की भाषा बोलने का वरदान नहीं होता है ।


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आत्मा की अगुवाई से बोलने का क्या अर्थ है? क्या आत्मा की अगुवाई में बोलने का वरदान आज भी है?    
 

अल्कोहल/शराब पीने के विषय में बाइबल क्या कहती है? एक क्रिश्चियन के लिये अल्कोहल पीना क्या पाप है?


प्रश्न: अल्कोहल/शराब पीने के विषय में बाइबल क्या कहती है? एक क्रिश्चियन के लिये अल्कोहल पीना क्या पाप है?

उत्तर:
धर्मशास्त्र शराब या मदिरा पीने के बारे बहुत कुछ व्याख्या करता है(लैव्यव्यवस्था १०:९; गिनती ६:३; व्यवस्थाविवरण १४:२६; २९:६; न्यायियों १३:४, ७,१४; १शमूएल १:१५; नीतिवचन २०:१; ३१:४, ६; यशायाह ५:११; २२; २४:९; २८:७; २९:९; ५६:१२, मीका २:११; लूका १:१५) । हॉलाकि, धर्मशास्त्र आवश्यक रूप से एक क्रिश्चियन को बीयर, शराब या कोई भी अल्कोहल सहित पेय पीने के लिये मना नहीं करता । मसीहियों को नशे (मतवालेपन) का परिहार करने की आज्ञा दी गई है (इफिसियों ५:१८) । बाइबल नशा करने तथा उसके प्रभावों की आलोचना करता है (नीतिवचन २३:२९-३५) । मसीहियों को यह भी आज्ञा दी गई हैं कि वे अपनी देह को किसी के भी "आधीन" होने की अनुमति न दें (१कुरिन्थियों ६:१२; २पतरस २:१९) । पवित्र शास्त्र एक क्रिश्चियन को ऐसे कार्य करने से भी मना करता है जो अन्य मसीहियों को ठेस पहुचाये या उनके अंतःकरण के विरुद्ध पाप करने को प्रोत्साहित करें (१कुरिन्थियों ८:९-१३) । इन सिद्धांतो के प्रकाश में यह किसी भी क्रिश्चियन के लिए कहना अत्यन्त कठिन होगा कि वो परमेश्वर की महिमा बढ़ाने के लिये अल्कोहल पी रहे हैं (१कुरिन्थियों १०:३१) ।

यीशु ने पानी को दाखरस में बदल दिया था । ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतया यीशु कभी-कभी शराब पीते थे(यूहन्ना २:१-११; मत्ती २६:२९) । नये टेस्टामेन्ट अवधि में, पानी बहुत स्वच्छ नहीं था । आधुनिक स्वास्थ्य-व्यवस्था के बिना, पानी जीवाणु, विषाणुओं तथा सब प्रकार के प्रदूषणों से भरा रहता था । आज भी तीसरी दुनिया के देशों में यह सत्य है । उसके परिणामस्वरुप लोग अक्सर शराब (या अंगूर का रस) पीते थे, क्योंकि उसमें प्रदूषण होने की संभावना अधिक कम थी । १तिमुथियुस ५:२३ में, पौलुस तिमुथियुस को पानी ना पीने का निर्देश दिया (जो कि संभवतः उसे पेट की समस्या उत्पन्न कर रहा था) तथा उसके विपरीत दाखरस पीने की सलाह दिया था । बाइबल में यूनानी भाषा में शराब के लिये जो शब्द था वो शराब के लिए प्रतिदिन उपयोग में लिए जाने वाला शब्द है । उन दिनों शराब का खमीरीकरण के द्वारा तैयार किया जाता था, किन्तु आवश्यकतानुसार आज के स्तर की तरह नहीं। यह कहना गलत होगा कि वो अंगूर का रस था, परन्तु यह कहना भी गलत होगा कि वो आज के समय जैसी प्रयोग में लाई जाने वाली शराब की तरह थी । फिर से, पवित्र शास्त्र आवश्यक रूप से मसीहियों को बीयर, शराब या कोई अन्य अल्कोहल सहित पेय वर्जित नहीं करता । अल्कोहल अपने में पाप से कलंकित नहीं है । बल्कि वो है नशा तथा अल्कोहल की लत जिससे एक क्रिश्चियन को पूर्ण रूप से अलग रहना चाहिये (इफिसियों ५:१८; १कुरिन्थियों ६:१२) । हाँलाकि बाइबल में सिद्धांत है जो यह दलील देने को अत्यन्त कठिन बताते हैं कि एक क्रिश्चियन को किसी भी मात्रा में अल्कोहल पीना परमेश्वर को प्रसन्न करना है ।


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अल्कोहल/शराब पीने के विषय में बाइबल क्या कहती है? एक क्रिश्चियन के लिये अल्कोहल पीना क्या पाप है?    
 

जुआ खेलने के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या जुआ खेलना पाप है?


प्रश्न: जुआ खेलने के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या जुआ खेलना पाप है?

उत्तर:
जुआ खेलने को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है, "संभावनाओं के विपरीत, धन को बढ़ाने के लिये धन का जोखिम लेना ।" बाइबल कोई विशेषरूप से जुआ खेलने, शर्त लगाने तथा लॉटरी को बुरा नहीं कहती । बाइबल हमें सचेत अवश्य करती है कि हम धन का लालच ना करें (१तिमुथियुस ६:१०; इब्रानियों १३:५) । पवित्रशास्त्र भी हमको "जल्दी धनी बनने" के प्रयासों से दूर रहने के लिये प्रोत्साहित करता है (नीतिवचन १३:११; २३:५; सभोपदेशक ५:१०) । जुआ निश्चित रूप से धन के प्रेम पर केन्द्रित होता है तथा एकदम सत्य रूप से लोगों को शीघ्र तथा आसान दौलत का लालच देता है ।

जुआ खेलने में क्या बुराई है? जुआ खेलना एक कठिन विषय है क्योंकि अगर यह मर्यादा में रहकर किया जाये या कभी-कभी कुछ खास अवसरों पर, तो यह धन की बर्बादी होगी, परन्तु यह आवश्यक रूप से "बुरा" नहीं है । लोग कई सारे कार्य-कलापों में धन को बर्बाद करते हैं । जुआ खेलना उससे अधिक या कम धन की बर्बादी करना नहीं है जैसे कि कोई फिल्म देखना (कई उदाहरणों में), आवश्यकता से अधिक महंगा खाना खाना, या महत्वहीन वस्तुऐं खरीदना । और उसी समय, यह वास्तविकता कि अन्य वस्तुओं पर भी धन बर्बाद हो जाता है जुआ खेलने को न्यायसंगत सिद्ध नहीं करती । धन को बर्बाद नहीं करना चाहिये । अधिक धन को दिये गए परमेश्वर के कार्य के लिये भविष्य की आवश्यकताओं के लिये बचा कर रखना चाहिये-ना कि हार जाने के लिये ।

बाइबल में जुआ : हॉलाकि बाइबल में जुआ खेलने का सुस्पष्टता से वर्णन नहीं किया गया है, उसमें "भाग्य" या "संयोग" की बातों का वर्णन है । उदाहरण के लिये लैव्यव्यवस्था में बलि के लिये बकरी चुनने के लिये पर्ची डालना (चिटठी डालना) होता था । यहोशु ने विभिन्न जातियों को भूमि आवंटित करने के लिये निश्चित करने के लिये पर्ची डालें । न्हेम्याह ने यह निर्धारित करने के लिये पर्ची डाली के युरूशलेम के अंदर कौन रहेगा और कौन नहीं । प्रेरितों ने यहूदा के प्रतिस्थापन के लिये पर्ची डाली । (नीतिवचन १६:३३) कहता है, "चिटठी डाली जाती तो है, परन्तु उसका निकलना यहोवा ही की ओर से होता है ।" बाइबल में कही भी जुआ खेलना या "संयोग" मनोरंजन के लिये प्रयोग नहीं हुआ या परमेश्वर के अनुयायियों के लिये अभ्यास के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया ।

जुऐघर तथा लॉटरियॉ : जुएघर जुआरी को अधिक से अधिक धन का जोखिम उठाने के लिये हर तरीके की बिक्री कलाओं का प्रयोग करते हैं । वो अकसर बहुत सस्ती या बिल्कुल मुफ्त शराब पिलाते हैं, जो कि नशे को प्रोत्साहन देती है जिसके फलस्वरूप सही निर्णय लेने की क्षमता में कमी आ जाती है । जुऐघर में बड़ी धनराशियों को लेने के लिये तथा वापसी में शीद्घ्रता से भाग जानेवाले खोखले सुख देने के लिए हर प्रकार के छल का प्रयोग किया जाता है । लाटरियॉ अपने आप को यह दर्शाती है कि वो शिक्षा के लिये या/और सामाजिक कार्यक्रमों के लिये धन इकट्ठा कर रही है । हाँलाकि शोधों से पता चला है कि अक्सर लाटरी के भागीदार वो होते हैं जो कि लाटरी का टिकट खरीदने के लिये न्यूनतम समर्थ होते हैं । "शीघ्र धनी" बनने का आकर्षण उनके विरोध करने के लिये बहुत बड़ा है जो निराशोन्मत होते हैं । जीतने के अवसर बहुत कम होते हैं जिसके परिणामस्वरूप कई लोगों के जीवन तबाह हो जाते हैं ।

लॉटरी द्वारा कमाये धन से परमेश्वर प्रसन्न क्यों नहीं होता है : कई लोग लॉटरी या जुआ खेलने का दावा इसलिये करते हैं कि वो चर्च (कलीसिया) को धन दे सकें, या किसी अन्य अच्छे कार्य के लिये । यद्यपि यह एक अच्छा उद्देश्य है, पर वास्तविकता यह है कि बहुत कम लोग जूऐ से जीते हुए धन को धार्मिक कार्यों के लिये उपयोग करते हैं । शोध बताते हैं कि लॉटरी जीतने वालों का एक विशाल बहुमत लाटरी जीतने के कुछ साल पश्चात उससे भी बहुत बुरी आर्थिक स्थिति में होता है जितना कि पहले भी नहीं था । बहुत कम, अगर कोई हैं, सचमुच अच्छे कार्य के लिए धन देते हैं । और, परमेश्वर को संसार में अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए हमारे धन की आवश्यकता नहीं है । (नीतिवचन १३:११) कहता है, "निर्धन के पास माल नहीं रहता परन्तु जो अपने परिश्रम से बटोरता, उसके बचाती है ।" परमेश्वर संप्रभु है तथा अपनी कलीसिया (चर्च) के लिये ईमानदारी के स्त्रोतों से उपलब्ध करायेगा । क्या नशीली दवाईयों या बैंक की डकैती से प्राप्त हुए धन के दान को ग्रहण करने से परमेश्वर का सम्मान होगा? और ना ही परमेश्वर को आवश्यकता है, ना ऐसे धन को चाहता है जो कि गरीबों को दौलत का लोभ दिखाकर उनसे "चुरा" लिया गया है ।

१तिमुथियुस ६:१० हमें बताता है, "क्योंकि रूपये का लोभ सब प्रकार की बुराईयों की जड़ है, जिसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हुए कितनों ने विश्वास से भटक कर अपने आप को नाना प्रकार के दुखों से छलनी बना दिया है ।" इब्रानियों १३:५ घोषणा करता है, "तुम्हारा स्वभाव लोभ रहित हो, और जो तुम्हारे पास है उसी पर संतोष करो; क्योंकि उसने आप ही कहा है, मैं तुझे कभी ना छोडूँगा, और ना कभी तुझे त्यागूँगा ।" (मत्ती ६:२४) ऐलान करता है, "कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा; तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते ।"


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जुआ खेलने के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या जुआ खेलना पाप है?    
 

शरीर पर छाप लगाने या गोदने के विषय में बाइबल क्या कहती है?


प्रश्न: शरीर पर छाप लगाने या गोदने के विषय में बाइबल क्या कहती है?

उत्तर:
पुराने नियम की व्यवस्था ने इज़रायलियों को यह आज्ञा दी थी, "मुर्दों के कारण अपने शरीर को बिल्कुल ना चीरना और ना उसमें छाप लगाना; मैं यहोवा हूँ" (लैव्यव्यवस्था १९:२८) । इसलिए, चूंकि आज के समय में विश्वासी पुराने नियम की व्यवस्था के अधीन नहीं है (रोमियो १०:४; गलतियों ३:२३-२५; इफिसियों २:१५), यह वास्तविकता के शरीर के ऊपर छाप के विरुद्ध एक आज्ञा थी इसलिए हमें प्रश्न करना चाहिये । नया नियम इस विषय में कुछ नहीं कहता कि एक विश्वासी को शरीर पर छाप लगानी चाहिये या नहीं ।

शरीर पर छाप या गोदने के संबंध में एक अच्छा परीक्षण यह निर्धारित करना है कि क्या हम ईमानदारी से, अच्छे विवेक में, परमेश्वर से कह सकते हैं कि वो उस पर आशीष दे तथा उस विशेष क्रिया को अपने अच्छे उद्देश्यों में उपयोग करे। "सो तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो" (१कुरिन्थियों १०:३१) । बाइबल शरीर पर छाप या गोदने के विरुद्ध में आज्ञा नहीं देती, परन्तु वो हमें यह विश्वास करने का कोई कारण भी नहीं देती कि परमेश्वर हमें शरीर पर छाप या गोदना करने देना चाहेगा ।

विचार करने लायक एक अन्य विषय शालीनता है । बाइबल हमें शालीनता से वस्त्र धारण करने के लिये निर्देश देती है (१तिमुथियुस २:९) । शालीनता से वस्त्र धारण करने का एक पहलू यह निश्चित करना है कि जो कुछ भी वस्त्र से ढकना चाहिये वो ठीक रूप से ढका है । शालीनता का अनिवार्य अर्थ है कि हम अपनी ओर ध्यान आकर्षित ना करें । जो लोग शालीनता से वस्त्र धारण करते हैं वो इस प्रकार से करते हैं कि अपनी ओर ध्यान आकर्षित ना होनें दे । शरीर पर छाप या गोदना निश्चित रूप से ध्यान आकर्षित करते हैं । इस कारण से, शरीर पर छाप या गोदना शालीनता नहीं है ।

उन विषयों पर जिनपर बाइबल कुछ विशेष रूप से नहीं बताती एक महत्वपूर्ण धर्मग्रथीय सिद्धांत यह है कि अगर संदेह की कोई जगह है कि उससे परमेश्वर प्रसन्न होगा, तो उस कार्य को ना करना ही सबसे अच्छा है । "और जो कुछ विश्वास से नहीं, वह पाप है" (रोमियो १४:२३) । हमें यह स्मरण रखने की आवश्यकता है कि हमारी देह, तथा हमारी आत्मायें भी, सुधारी गई हैं तथा परमेश्वर की है । हॉलाकि १कुरिन्थियों ६:१९-२०, सीधे तौर पर शरीर पर छाप या गोदना पर लागू नहीं होता, परन्तु वो हमें एक सिद्धांत देता है, "क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारी देह पवित्र आत्मा का मन्दिर है; जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो ? क्योंकि दाम देकर मोल लिये गए हों, इसलिए अपनी देह के द्वारा परमेश्वर की महिमा करो।" इस महान सत्य का इस बात से वास्तविक संबंध होना चाहिये कि हम अपने शरीर के साथ क्या करते हैं तथा कहॉ जाते हैं । अगर हमारी देह परमेश्वर की है, हमें उस पर छाप या गोदने से पहले यह निश्चित कर लेना चाहिये कि हमें स्पष्ट रूप से उसकी "अनुमति" प्राप्त है ।


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शरीर पर छाप लगाने या गोदने के विषय में बाइबल क्या कहती है?    
 

क्या पालतू / जानवर स्वर्ग में जाते हैं? क्या पालतू / जानवरों में आत्मा होती है?


प्रश्न: क्या पालतू / जानवर स्वर्ग में जाते हैं? क्या पालतू / जानवरों में आत्मा होती है?

उत्तर:
बाइबल इस विषय में कोई विशेष प्रकार की शिक्षा नहीं देती है कि पालतू / जानवर स्वर्ग में जायेंगे । हॉलाकि हम पवित्रशास्त्र के कुछ सामान्य सिद्धान्त ले सकते हैं तथा इस विषय पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं । परमेश्वर ने जीवन की सॉस मनुष्य में (उत्पत्ति २:७) तथा जानवरों में (उत्पत्ति १:३०; ६:१७; ७:१५, २२) फॅकी । मनुष्य तथा जानवरों के मध्य मूलभूत भिन्नता यह है कि मनुष्य परमेश्वर के स्वरूप और उसकी समानता में बनाया गया है (उत्पत्ति १:२६-२७) । जानवर परमेश्वर के स्वरूप तथा समानता में नहीं बनाये गए हैं । परमेश्वर के स्वरूप तथा समानता में बनाए जाने का अर्थ है कि मनुष्य परमेश्वर जैसा है, जिसमें आत्मिकता में समर्थ, बुद्धि, भावनाओं तथा इच्छा के साथ, तथा उसमें आस्तित्व में रहने का पक्ष है जो मृत्यु के पश्चात भी जारी रहता है । अगर पालतू/जानवरों में "आत्मा" होती ही है या तत्वहीन पक्ष, तो वो भिन्न तथा कम "गुणों" वाला होगा । इस भिन्नता का संभवतः अर्थ यह है कि पालतू जानवरों की आत्मा मृत्यु के बाद बनी रहती ।

इस प्रश्न में विचार करने के लिए एक अन्य बात यह है कि परमेश्वर ने उत्पत्ति के समय अपनी सृष्टि की क्रिया के एक भाग के रूप में निश्चय ही जानवरों को रचा था । परमेश्वर ने जानवरों को बनाया तथा कहा कि ये अच्छा है । (उत्पत्ति १:२५) । इसलिए, यहॉ पर कोई कारण नहीं है कि नयी पृथ्वी पर जानवर क्यों नहीं हो सकते (प्रकाशित वाक्य २१:१) । परमेश्वर के राज्य में निश्चित रूप से जानवर रहते होगें (यशायाह ११:६; ६५:२५) । यह निश्चित रूप से कहना असंभव है कि जानवरों में से कुछ पालतू रहें होंगे जो कि हमारे पास यहॉ धरती पर है । हम यह भली प्रकार जानते हैं कि परमेश्वर न्यायी है तथा यह कि जब हम स्वर्ग पर जायेंगे हम अपने आपको उसके इस विषय पर निर्णय से पूर्णतया सहमत पायेंगे चाहे वो जो भी हो ।


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क्या पालतू / जानवर स्वर्ग में जाते हैं? क्या पालतू / जानवरों में आत्मा होती है?    
 

बाइबल डायनासोर के विषय में क्या कहती है? क्या बाइबल में डायनासोर का वर्णन है?


प्रश्न: बाइबल डायनासोर के विषय में क्या कहती है? क्या बाइबल में डायनासोर का वर्णन है?

उत्तर:
मसीही समाज में डायनासोर का विषय उस लम्बे चले आ रहे विवादों का भाग है जो कि पृथ्वी पर सदियों से चला आ रहा है, उत्पत्ति का सही रूप में भाषान्तर, तथा हमारे चारों ओर पाये जाने वाले भौतिक प्रमाणों की व्याख्या करना । जो लोग पृथ्वी को बहुत पुरानी मानते हैं वो इस बात पर सहमत हैं कि बाइबल में डायनासोर का उल्लेख नहीं है, क्योंकि उनके प्रतिमान के अनुसार डायनासोर उससे भी लाखों वर्ष पहले लुप्त हो चुके थे, जब मनुष्य ने पृथ्वी पर कदम रखा था । जिन लोगों ने बाइबल लिखी थी उन्होंने भी डायनासोर को जीवित नहीं देखा होगा ।

जो लोग धरती को अधिक पुराना नहीं मानते हैं उनमें इस सहमति की प्रवृत्ति हैं कि बाइबल में डायनासोर का वर्णन है हाँलाकि उसमें वस्तुतः "डायनासोर" शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । उसकी जगह वो हिब्रु भाषा के शब्द ताननीन का प्रयोग करती है । हमारी अंग्रेजी की बाइबल में ताननीन का कई भिन्न तरीकों से अनुवाद किया गया है; कभी वो "समुद्री दानव" के रूप में हैं, कभी वो "अजगर" के रूप में । उसे अधिक बार "ड्रैगन" के रूप में अनुवाद किया गया है । यह प्रकट होता है कि ताननीन एक विशाल रेंगने वाले जन्तु की तरह ही हुआ होगा । पुराने नियम में इन जन्तुओं का वर्णन लगभग तीस बार किया गया है तथा यह धरती तथा पानी दोनों में पाये जाते हैं ।

पुराने नियम में लगभग तीस बार इन विशाल रेंगने-वाले जन्तुओं के वर्णन के साथ-साथ बाइबल कुछ जन्तुओं का इस प्रकार से वर्णन करती है कि कुछ विद्धान यह मानते हैं कि उसके लेखक डायनासोर का ही वर्णन कर रहे होंगे । बेहेमोथ के बारे में कहा जाता है कि वो परमेश्वर के बनाए हुए सारे जीव-जन्तुओं में सबसे विशाल था, एक दीर्घकाय जन्तु जिसकी पूछ देवदार के वृक्ष की तरह थी (अय्यूब ४०:१५) । कुछ विद्धानों ने बेहेमोथ को या तो हाथी या दरियाई द्घोड़े के रूप में पहचान करने का प्रयास किया है । अन्य लोग इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हाथियों के तथा दरियाई घोड़ों के पतली पूछें होती हैं, जिनकी तुलना किसी भी रूप में देवदार के वृक्ष से नहीं की जा सकती । डायनासोर के ब्राशीओसौरस तथा दूसरी ओर डिप्लोडोकस की तरह विशाल पूछें थी जिसकी तुलना देवदार के वृक्ष से आसानी से की जा सकती है ।

लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में किसी ना किसी प्रकार के कला दर्शाते हुए विशाल रेंगने वाले जन्तु रहे हैं । चट्टानों पर तराशी हुई, मनुष्य निर्मित, यहॉ तक कि छोटी-छोटी मिट्टी आकृत्यिँ जो उत्तरी अमरीका में पाई गई वो डायनासोर के आधुनिक चित्रण से मेल खाती है । दक्षिण अमरीका में चट्टानों की नक्काशी मनुष्यों की डिप्लोडोकस-जैसे जन्तुओं की सवारी का चित्रण करती है, आश्चर्यजनक तरीके से, द्राईसेराटॉप्स-टेरोडेक्टल तथा टाईरानोसौरस रेक्स जैसे जन्तुओं से मिलती जुलती आकृतियॉ धारण करती हैं । रोमी फर्श, मायान के मिट्टी के बर्तन तथा बाबुल नगर की दीवारें, सब की सब, मनुष्य के उस-पार की संस्कृति, भौगालक रूप से मुक्त, इन जन्तुओं के प्रति आकर्षण का प्रमाण देती है । सौम्य वृतान्त जैसे कि मार्को पोलो का ११ मिलिओन, खजाना जमा करने वाले पशुओं के साथ घुल मिल जाती हैं । आधुनिक समय बताता है कि अभी भी ऐसे दृश्य हैं हॉलाकि आमतौर पर उनके प्रति संशात्मक व्यवहार किया जाता है ।

डायनासोर तथा मनुष्य के सह-आस्तित्व के लिये अच्छी-खासी मात्रा में मानव-संबंधी तथा ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ-साथ, अन्य भौतिक प्रमाण भी हैं, जैसे कि पुराने पड़ चुंके मानव तथा डायनासोर के इक्टठे पदचिन्ह जो कि उत्तरी अमरीका तथा पश्चिमी-मध्य एशिया में पाये गए । इसलिये, क्या बाइबल में डायनासोर का वर्णन है? यह विषय निपटने से बहुत दूर है । यह इस बात पर निर्भर करता है कि उपलब्ध प्रमाणों का आप कैसा अर्थ निकालते हैं तथा आप अपने चारो ओर के संसार को किस रूप में देखते हैं । GotQuestions.org में यहाँ पर हम यह मानते हैं कि पृथ्वी बहुत अधिक पुरानी नहीं है तथा डायनासोर तथा मनुष्यों का सह-अस्तित्व था । हम यह मानते हैं कि डायनासोर आश्चर्यजनक पर्यावरणिक बदलाव के मिश्रण के कारण आई बाढ़ के कारण कुछ समय बाद मर गए, तथा इस वास्तविकता को भी कि वो विनाश की हद तक मनुष्य के द्वारा निमर्मता का शिकार हुए ।


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बाइबल डायनासोर के विषय में क्या कहती है? क्या बाइबल में डायनासोर का वर्णन है?    
 

कैन की पत्नी कौन थी? क्या कैन की पत्नी उसकी बहन थी?


प्रश्न: कैन की पत्नी कौन थी? क्या कैन की पत्नी उसकी बहन थी?

उत्तर:
बाइबल निश्चित रूप से नहीं बताती कि कैन की पत्नी कौन थी । केवल संभावित उत्तर केवल यह है कि कैन कि पत्नी उसकी बहन, या भतीजी की लड़की थी, वगैरह । बाइबल यह नहीं बताती कि जब उसने हाबिल की हत्या की तो कैन की क्या उम्र थी (उत्पत्ति ४:८) । जबकि वो दोनों किसान थे, तो वो संभवतया पूरे विकसित व्यस्क होंगे, और अपने-अपने परिवारों के साथ । आदम और हव्वा के निश्चित रूप से कैन और हाबिल के अलावा और भी सन्तानें होंगी जब हाबिल मारा गया-बाद में निश्चित रूप से उनके कई और सन्तानें होंगी (उत्पत्ति ५:४) । यह वास्तविकता कि हाबिल को मारने के बाद कैन अपने स्वयं के जीवन के प्रति भयभीत था (उत्पत्ति ४:१४) यह दर्शाती करती है कि उस समय आदम और हव्वा के संभवतया कई संतान थी तथा यहाँ तक कि पोते या पड़-पोते भी थे । कैन की पत्नी आदम और हव्वा की बेटी या बेटी की बेटी थी ।

क्योंकि आदम और हव्वा पहले (तथा केवल) मानव थे (मनुष्य थे), उनकी सन्तानों में आपस में विवाह करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था । परमेश्वर ने अपनी जाति में विवाह करने को वर्जित नहीं किया था, काफी बाद में पर्याप्त लोग हो गए तब अपनी जाति में विवाह करना वर्जित कर दिया गया (लैव्यव्यवस्था १८:६:१८) । यही कारण कि निषिद्ध संभोग से अक्सर बच्चों में जीन असमान्यतायें हो जाती हैं यह है कि जब दो समान जीन (उदाहरण : भाई और बहन) के सन्तान होती हैं-जीन संबंधी दोष अधिक संभव होते है क्योंकि माँ बाप में वो दोष स्वयं होते हैं । जब भिन्न परिवार के लोगों की सन्तान होती है-यह संभव नहीं होता कि मॉ बाप को एक जैसे जीन संबंध दोष होंगे । सदियों से मानव की अनुवांश्किता इतनी प्रदूषित हो गयी है कि जीन संबंधी दोष बहुत बढ़ गए हैं, प्रचुर हो गए हैं, तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की ओर बढ़ रहे हैं । आदम तथा हव्वा में कोई जीन संबंधी दोष नहीं थे, इसलिए इस कारण उनको तथा पहली कुछ पीढ़ियों को कहीं ज्य़ादा अच्छे स्वास्थ के गुण उपलब्ध कराये जो कि आज के समय हम में नहीं हैं । आदम और हव्वा की सन्तानों में बहुत थोड़े से, अगर कुछ होंगे तो, जीन संबंधी दोष थे । परिणामस्वरूप, उनका आपस में विवाह करना सुरक्षित था । कैन की पत्नी का उसकी बहन होने का विचार अजीब तथा झल्लाहट उत्पन्न करने वाला हो सकता है । आरंभ में, परमेश्वर ने एक पुरुष तथा एक स्त्री से सृष्टि का आरंभ किया, तो दूसरी पीढ़ी के लिये आपस में विवाह करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था ।


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कैन की पत्नी कौन थी? क्या कैन की पत्नी उसकी बहन थी?    
 

समलैंगिकता के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या समलैंगिकता एक पाप है?


प्रश्न: समलैंगिकता के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या समलैंगिकता एक पाप है?

उत्तर:
बाइबल निरंतरता से हमें बताती है कि समलैंगिकता एक पाप क्रिया है (उत्पत्ति १९:१-१३; लैव्यव्यवस्था १८:२२; रोमियो १:२६-२७; १कुरिन्थियों ६:९) । रोमियो १:२६-२७ विशेष रूप से हमें बताता है कि समलैंगिकता परमेश्वर का इन्कार करने तथा उसकी अवज्ञा करने का परिणाम है । जब एक व्यक्ति पाप तथा अविश्वास में लिप्त रहता है, तो बाइबल हमें बताती है कि परमेश्वर उसे और अधिक दुष्ट तथा पतित पाप "के हवाले कर" देता है ताकि वो परमेश्वर से अलग जीवन की निरर्थकता तथा निराशा देख सकें । १कुरिन्थियों ६:९ दावा करता है कि पुरुषगामी अन्यायी परमेश्वर के राज्य के वारिस नहीं होंगे ।

ईश्वर व्यक्ति की रचना समलैंगिक इच्छाओं के साथ नहीं करता है। बाइबल हमे बताता है कि एक व्यक्ति अपने कृत्यों के द्वारा समलैंगिक बनता है एवं अंतत: अपनी इच्छा से इसे स्वीकार करता है। एक व्यक्ति अधिक समलैंगिक संवेदना के साथ जन्म ले सकता है ठीक उसी तरह से जैसं कुछ लोग हिंसा तथा अन्य पापों के साथ पैदा होता है। ये किसी भी रूप में व्यक्ति को झूठा आलंबन नहीं देता कि अपने पापों को उचित औचित्य पापपूर्ण अभीष्ट के रूप में रखें। यदि कोई व्यक्ति क्रोध की वृहद संवेदना के साथ जन्म ले, तो वे उन अभीष्ट के अनुकूल अपने को तैयार करें? सही तौर पर इसका जवाब नहीं है, समलौंगिकता के यही यथार्थ है।

हॉलाकि, बाइबल समलैंगिकता को किसी अन्य पाप से अधिक नहीं बताती । सारे पाप परमेश्वर के प्रति आक्रामक है । १कुरिन्थियों ६:९-१० में समलैंगिकता कई सारे पापों में से एक है जो एक व्यक्ति को परमेश्वर के राज्य से दूर रखेंगी । बाइबल के अनुसार, परमेश्वर की क्षमा एक समलैंगिक को उसी प्रकार उपलब्ध है जैसे कि वो एक व्यभिचारी, मूर्तिपूजक, हत्यारे, चोर, वगैरह को है । परमेश्वर पाप के ऊपर, जिसमें समलैंगिकता भी शामिल है, विजय की शक्ति का भी वादा करता है, उन सबको जो अपने उद्धार के लिये यीशु मसीह में विश्वास रखते हैं (१कुरिन्थियों ६:११; २कुरिन्थियों ५:१७) ।


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समलैंगिकता के विषय में बाइबल क्या कहती है? क्या समलैंगिकता एक पाप है?    
 

हस्तमैथुन - क्या यह बाइबल के अनुसार पाप है?


प्रश्न: हस्तमैथुन - क्या यह बाइबल के अनुसार पाप है?

उत्तर:
बाइबल हस्तमैथुन का विशेष रूप से कहीं उल्लेख नहीं करती है या यह बताती है कि क्या हस्तमैथुन करना पाप है अथवा नहीं । यह सत्य कि बाइबल में हस्तमैथुन के उल्लेख की कमी है पर उसको आवश्यक रूप से सही नहीं बना देती है । बाइबल में व्यभिचार की चर्चा तक को परिहार करने के लिये कहा गया है (इफिसियों ५:३) । मैं नहीं देखता कि हस्तमैथुन उस विशेष परीक्षण में उत्तीर्ण होता है । कभी-कभी यह देखने के लिये कि कोई कार्य पाप है या नहीं का अच्छा परीक्षण ऐसे होता है कि क्या आपको लोगों को यह बताते हुए गर्व होगा कि आपने अभी क्या किया है । अगर वो कोई ऐसा कार्य है जिसका लोगों को पता लगने पर शर्मिदगी उठानी या आप चिंतित हो, तो बहुत संभव है कि वो पाप है । एक अन्य अच्छा परीक्षण यह निर्णय करना है कि हम ईमानदारी से, अच्छे विवेक में, परमेश्वर से यह कह सकते हैं कि उस विशेष क्रिया को अभीष्ट करें तथा अपने अच्छे उद्देश्यों में उपयोग करे । मैं नहीं समझता कि हस्तमैथुन उन कार्यों में से है जिनपर हमें "गर्व" होना चाहिये या हम उसके लिये सही रूप से परमेश्वर का धन्यवाद करें ।

बाइबल हमें शिक्षा देती है, "सो तुम चाहे खाओ, चाहे पियो, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो" (१कुरिन्थियों १०:३१) । अगर वहॉ संदेह के लिये कोई जगह है कि वो परमेश्वर को प्रसन्न करेगा, तो उसे छोड़ देना ही सबसे अच्छा है । हस्तमैथुन के विषय में संदेह की एक निश्चित जगह है । "जो कुछ विश्वास से नहीं वह पाप है" (रोमियो १४:२३) । मैं नहीं देखता कि कैसे, बाइबल के अनुसार, हस्तमैथुन को परमेश्वर की महिमा को बढ़ाना माना जा सकता है । इसके अतिरिक्त हमें यह स्मरण रखने की आवश्यकता है कि

हमारे शरीर तथा हमारी आत्माऐं को मुक्त की गई है तथा परमेश्वर की है । "क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह पवित्र आत्मा का मंदिर है; जो तुम मे बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो? क्योंकि दाम देकर मोल लिये गए हों, इसलिए अपनी देह के द्वारा परमेश्वर की महिमा करो" (१कुरिन्थियों ६:१९, २०) । इस महान सत्य का इस बात से वास्तविक संबंध होना चाहिये कि हम अपने शरीर के साथ क्या करते हैं तथा कहॉ जाते हैं । इसलिये, इन सिद्धांतो के प्रकाश में, मैं यह निश्चित रूप से कहना चाहूँगा कि बाइबल के अनुसार हस्तमैथुन एक पाप है । मैं यह विश्वास नहीं करता कि हस्तमैथुन परमेश्वर को प्रसन्न करता है, व्याभिचार की चर्चा को उजागर करता है, या परमेश्वर का हमारी देह पर अधिकार की परीक्षा पर खरा उतरता है ।


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हस्तमैथुन - क्या यह बाइबल के अनुसार पाप है?