बाईबल के विषय में ‌‌‌प्रश्न

बाईबल के विषय में ‌‌‌प्रश्न

क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?

बाइबल की ईश्वर प्ररित पुस्तको को कैसे और कब एक साथ रखा गया?

क्या बाइबल में त्रृटिया, विरोधाभास, या विसंगतियाँ है?

इसका क्या अर्थ है कि बाइबल प्ररित है?

क्या बाइबल आज के लिए अनुरूप है?

बाईबल के अध्यन का सही ढंग क्या है?

हमे बाइबल क्यो पढना और अध्यन करना चाहिए?



बाईबल के विषय में ‌‌‌प्रश्न    
 

क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?


प्रश्न: क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?

उत्तर:
इस प्रश्न का हमारा उत्तर केवल यह ही सुनिश्चित नहीं करेगा कि हम अपने जीवन में बाइबल और उसकी भूमिका को किस दृष्टि से देखते हैं, परन्तु अंततः वो हमारे उपर एक अनन्त प्रभाव भी डालेगा । अगर बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है, तो हमें उसे संजोए रखना चाहिए, पढ़ना चाहिए, पालन करना चाहिए तथा अंततः उसपर भरोसा करना चाहिये । अगर बाइबल परमेश्वर का वचन है तो उसको खारिज कर देना परमेश्वर को खारिज कर देना है ।

यह वास्तविकता कि परमेश्वर ने हमें बाइबल दी, हमारे प्रति उसके प्रेम की गवाही तथा उदाहरण है । "प्रकटीकरण" (प्रकाशितवाक्य) शब्द का सरल अर्थ यह है कि परमेश्वर ने मानव जाति को यह प्रकट कराया कि वह कैसा है तथा हम कैसे उसके साथ सही संबंध रख सकते हैं । यह वो बातें हैं जो हमें नहीं मालूम चलती अगर परमेश्वर दैवी विधि से हम पर बाइबल में प्रत्यक्ष नहीं करता । हालांकि बाइबल में स्वयं ईश्वर का प्रकटीकरण प्रगतिशील रूप से लगभग १५०० वर्ष से अधिक दिया गया; उसमें वो सारी बातें रहीं जिनकी परमेश्वर के बारे में जानने के लिए मनुष्य को आवश्यकता थी, जिससे कि वो उसके साथ सही संबंध बना सके । अगर बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है, तो फिर वो विश्वास, धार्मिक प्रथाओं तथा नैतिकताओं के सभी मामलों की एक निर्णायक अधिकारी हैं ।

हमें स्वयं से यह प्रश्न जरूर पूछना चाहिए कि हम कैसे जान सकते हैं कि बाइबल परमेश्वर का वचन है ना कि केवल एक अच्छी पुस्तक? बाइबल में ऐसी क्या विशेषता है जो उसे अब तक कि लिखी सारी धार्मिक पुस्तकों से अलग करती है? क्या कोई प्रमाण है कि सच में बाइबल परमेश्वर का वचन है? यह उस प्रकार के प्रश्न हैं जिनकी ओर देखना चाहिये अगर हम बाइबल के दावा को गंभीरतापूर्वक निरीक्षण करना चाहते हैं कि बाइबल ही परमेश्वर का सत्य वचन है, ईश्वरीय शक्ति से प्रेरित, तथा विश्वास और संस्कार के संबंध में पूर्ण रूप से पर्याप्त ।

इस वास्तविकता के विषय में कोई संदेह नहीं हो सकता कि बाइबल परमेश्वर ही का वचन होने का दावा करती है । यह स्पष्ट रूप से इन पदों में दिखाई देता है जैसे २तिमुथियुस ३:१५-१७ जो कहता है, "… और बालकपन से पवित्र शास्त्र तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है । हर एक पवित्रशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिए लाभदायक है । ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिए तत्पर हो जाए ।"

इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमें दोनों, भीतरी तथा बाहरी गवाहियों की ओर निश्चित रूप से देखना चाहिये कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । अन्दरूनी गवाहियाँ स्वयं बाइबल के अंदर की वो बातें हैं जो उसके ईश्वरीय मूल की गवाही देती है । बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है के लिए पहली भीतरी गवाहियों में से एक उसके एकत्व में देखा जाता है । हाँलाकि यह वास्तव में छियासठ पुस्तकें हैं, जो तीन महाद्वीपों में लिखीं हैं, तीन भिन्न भाषाओं में, लगभग १५०० वर्षों से अधिक तथा ४० लेखकों से अधिक के द्वारा (जो कि जीवन के विभिन्न पेशों में से आए थे), लेकिन बाइबल आरंभ से समाप्ति तक बिना किसी विरोध के एक सी ही बनी रही है । यह एकत्व और अन्य पुस्तकों से बेजोड़ है तथा शब्दों के ईश्वरीय मूल का प्रमाण है, कि परमेश्वर ने इन्सानों को इस प्रकार से अभिप्रेरित करा कि उन्होंने उसके ही शब्द अभिलिखित किये ।

एक अन्य भीतरी गवाही जो संकेत देती है कि सच में बाइबल परमेश्वर का वचन है उन विस्तृत भविष्यवाणियों में देखा जाता है जो कि उसके पन्नों के भीतर हैं । बाइबल में सैकड़ों भविष्यवाणियाँ हैं जो कि इज़रायल समेत एकल देशों के भविष्य, कुछ नगरों के भविष्य, मानव-जाति के भविष्य, और उसके आने के लिये जो मसीहा होगा, केवल इज़राइल का ही उद्वारकर्ता नहीं अपितु उन सब का जो उसपर विश्वास करते हैं, से संबंधित है । अन्य धार्मिक पुस्तकों की भविष्यवाणियों से या जो नास्त्रेदेमुस के द्वारा की गईं, उनके विपरीत, बाइबल की भविष्यवाणियाँ अत्यंत विस्तृत है तथा कभी गलत (असत्य) नहीं पाई गई। केवल पुराने नियम में ही यीशु मसीह से संबंधित तीन सौ से भी अधिक भविष्यवाणियॉ हैं । ना केवल इस बात का पूर्वकथन किया गया था कि वो कहां जन्मेगा तथा किस परिवार से आयेगा, परन्तु यह भी कि वह कैसे मरेगा तथा तीसरे दिन फिर से जी उठेगा । बाइबल में पूरी हुई भविष्यवाणियों को ईश्वरीय मूल के द्वारा समझाने के अतिरिक्त और कोई तार्किक तरीका है ही नहीं । किसी अन्य धार्मिक पुस्तक में इस सीमा या प्रकार की भविष्यवाणी नहीं है जो कि बाइबल में हैं ।

बाइबल के ईश्वरीय मूल का होने की एक तीसरी गवाही उसके बेजोड़ अधिकार तथा शक्ति में है । हाँलाकि, यह गवाही पहली दो भीतरी गवाहियों से अधिक व्यक्तिगत है, परन्तु यह बाइबल के ईश्वरीय मूल के होने की शक्तिशाली प्रमाणों से कम नहीं है । बाइबल में एक बेजोड़ अधिकार (क्षमता) है जो अब तक लिखी गई किसी भी पुस्तक में नहीं है । इस अधिकार तथा शक्ति को सर्वोत्तम रूप में इस प्रकार देखा जाता है कि किस तरह से बाइबल का अध्ययन करने से अनगिनत लोग परिवर्तित हुए । नशीली दवाओं के व्यसनी इसके द्वारा चंगे हो गए, समलैंगिक व्यक्ति इसके द्वारा मुक्त हुए, बहिष्कृत तथा कंगाल लोग इसके द्वारा रूपांतरित किये गए, कड़े अपराधी इसके द्वारा सुधारे गए, पापी इसके द्वारा फटकारे गए, तथा घृणा इसको पढ़ने के द्वारा प्रेम में बदल गई । बाइबल में निश्चय ही एक ओजस्वी तथा रूपांतरण की शक्ति है जो कि केवल तब ही संभव है क्योंकि यह सच में परमेश्वर का वचन है ।

बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है कि भीतरी गवाहियों के अतिरिक्त बाह्य गवाहियाँ भी है जो इस बात का संकेत देती है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । उन में से एक गवाही बाइबल की ऐतिहासिकता है । क्योंकि बाइबल ऐतिहासिक घटनाओं का ब्योरा देती है इसलिए उसकी सत्यता तथा यर्थातता किसी अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों की तरह सत्यापन के अधीन है । पुरातात्विक प्रमाणों तथा अन्य लिखित दस्तावेज़ों, दोनों के द्वारा, बाइबल के ऐतिहासिक वृतांतों को समय-समय पर सत्य तथा सही होने के लिए प्रमाणित किया जाता रहा है । सत्य तो यह है कि बाइबल के समर्थन में सारे पुरातत्विक तथा हस्तलिखित प्रमाणों ने उसे पुरातन संसार की सर्वश्रेष्ठ दस्तावेजों से सिद्ध करी हुई पुस्तक बना दिया है । यह सत्य कि बाइबल ऐतिहासिक रूप से सत्यापित घटनाओं का सही तथा सत्यता से ब्यौरा रखती है उसकी सत्यता का एक बड़ा संकेत है जब धार्मिक विषयो तथा सिद्धांतों पर विचार किया जाता है तथा उसके दावे को प्रमाणित करने में सहायक है कि बाइबल ही परमेश्वर का वचन है ।

अन्य बाह्य गवाहियों कि बाइबल ही सच में परमेश्वर का वचन है, वो है उसके मानव लेखकों की निष्ठा । जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, परमेश्वर ने हम तक अपने वचनों को अभिलिखित करने के लिए जीवन के विभिन्न पेशों से आये हुए मनुष्यों का उपयोग किया । इन मनुष्यों की जीवनियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस बात पर विश्वास करने का कोई भी ऐसा अच्छा कारण नहीं है कि वो ईमानदार तथा निष्ठावान नहीं थे । उनकी जीवनियों का निरीक्षण करते हुए तथा वो वास्तविकता कि जिस लक्ष्य पर वो भरोसा करते थे उसके लिए जान देने को भी तत्पर थे (प्रायः यंत्रणादायक मृत्यु), यह जल्दी ही स्पष्ट हो जाता है ये साधारण मगर ईमानदार मनुष्य सच में विश्वास करते थे कि परमेश्वर ने उनसे बातें करी है । जिन मनुष्यों ने नया नियम लिखा तथा कई अन्य सैकड़ों विश्वासी (१कुरिन्थियों १५:६) अपने संदेश के सत्य को जानते थे क्योंकि उन्होने यीशु मसीह को देखा तथा समय व्यतीत किया उसके मुर्दों में से जी उठने के पश्चात । जी उठे हुए मसीह को देखने के रूपांतरण का इन मनुष्यों पर जबरदस्त असर पड़ा । वे डर कर छिपने की जगह उस संदेश के लिए मरने को तैयार थे जो परमेश्वर ने उनपर प्रकट किया । उनके जीवन तथा मृत्यु इस सत्य को प्रमाणित करते है कि बाइबल सच में ही परमेश्वर का वचन है ।

एक अंतिम बाह्य गवाहियों कि बाइबल ही सच में परमेश्वर का वचन है वो है बाइबल का नष्ट ना हो पाना । उसके महत्व तथा पूर्णतया परमेश्वर के वचन के दावे के कारण, बाइबल ने इतिहास में किसी अन्य पुस्तक से बहुत अधिक बुरे आक्रमण तथा उसको नष्ट करने के प्रयास झेलें हैं । आरंभिक काल के रोमी सम्राटों जैसे डायोसीश्यिन से लेकर साम्यवादी तानाशाहों तथा आज के आधुनिक समय के नास्तिकों और अज्ञेयवादियों तक, बाइबल ने अपने सभी अक्रमणकारियों को झेला है तथा टिकने नहीं दिया तथा आज भी वो सारे संसार में सर्वाधिक प्रकाशित होने वाली पुस्तक है ।

सदा से, संशयवादियों ने बाइबल को काल्पनिक रूप में माना है, परन्तु पुरातत्व ने उसे ऐतिहासिक रूप में स्थापित किया है । विरोधियों ने उसकी शिक्षाओं को पुरातन तथा आदिकालीन कहकर आक्रमण किया, परन्तु उसकी नैतिक तथा विधिक धारणाएँ तथा शिक्षाओं ने सारे संसार में समाजों तथा संस्कृतियों पर अपना सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है । विज्ञान, मनोविज्ञान तथा राजनीतिक आंदोलनों के द्वारा आज भी उसपर आक्रमण जारी है परन्तु अभी तक वो वैसी ही प्रामाणिक तथा प्रासंगिक जैसे कि पहले जब वो लिखी गई थी । यह वो पुस्तक है जिसने बीते २००० वर्षों में अनगिनत जिंदगियों तथा संस्कृतियों को परिवर्तित कर डाला है । इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कैसे इसके विरोधी इसपर आक्रमण करने, इसको नष्ट करने, या इसको कलंकित करने का प्रयास करते हैं, परन्तु इन आक्रमणों के बाद भी बाइबल उतनी शक्तिशाली, उतनी ही सत्य तथा उतनी ही प्रासंगिक है जैसे वो पहले थी । उसकी शुद्धता जो आज तक सुरक्षित रखी गई है, उसको बदनाम करने, उसपर आक्रमण करने या उसको बरबाद करने के प्रयासों के बावजूद भी, इस सत्य का स्पष्ट प्रमाण है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । हमें इस बात पर चकित नहीं होना चाहिये कि चाहें कैसे भी बाइबल पर आक्रमण किया गया हो, वो हमेशा अपरिवर्तित तथा सही-सलामत निकल आती है । आखिरकार यीशु ने कहा था, "आकाश और पृथ्वी टल जायेंगे, पर मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मरकुस १३:३१) इस प्रमाण को देखने के बाद कोई भी संदेह के कह सकता है कि, "हाँ बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है ।"



क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?    
 

बाइबल की ईश्वर प्ररित पुस्तको को कैसे और कब एक साथ रखा गया?


प्रश्न: बाइबल की ईश्वर प्ररित पुस्तको को कैसे और कब एक साथ रखा गया?

उत्तर:
उत्तर ‘‘कैनन’’ शब्द उन पुस्तकों के लिए उपयोग किया जाता है जो परमेश्वर द्वारा प्रेरित है और इस कारण से बाइबल का हिस्सा है। बाइबल की ईश्वर प्रेरित पुस्तकों को तय करने में कठिनाई यह है कि बाइबल हमें उन पुस्तको की सुची उपलब्ध नहीं कराती है जो बाइबल की है। बाइबल की पुस्तको को तय करने की प्रक्रिया पहले यहूदी रबीयों और विद्वानों द्वारा और बाद में पहले मसीही द्वारा संचालित की गई। अंतत, वह परमेश्वर ही थे जिन्होने तय किया कि कौन सी पुस्तके बाइबल की ईश्वर प्रेरित पुस्तके है। जिस पुस्तक का लेखन परमेश्वर द्वारा प्रेरित होता वह धर्मशास्त्र की ईश्वर प्रेरित पुस्तको के सग्रह की पुस्तक बन जाती । यह प्रक्रिया परमेश्वर द्वारा अपने मानव अनुयायियों को विवश करने का था कि किन पुस्तको को बाईबल में सम्मिलित किया जाए।

नये नियम की तुलना में, पुराने नियम की ईश्वर प्रेरित पुस्तको के विषय में बहुत कम ही विवाद है। इब्री विश्वासियो ने परमेश्वर के सन्देश वाहको को पहचान कर उनके लेखन को परमेश्वर के द्वारा प्रेरित माना । जबकि इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि पुराने नियम की ईश्वर प्रेरित पुस्तको को लेकर भी कुछ विवाद था, परन्तु 250 ईसवी तक इब्री धर्मशास्त्र की ईश्वर प्रेरित पुस्तकों के बारे में लगभग सब का एक मत हो गया था। जो एक मुद्दा बचा रहा वह एपोक्रिफा को लेकर था, कुछ विवाद और विचार-विमर्श के साथ आज भी जारी है। अधिकतर इब्री विद्वानो एपोक्रिफा को एक अच्छा ऐतिहासिक और धार्मिक लेखा-जोखा तो मानते थे, लेकिन इब्री धर्मशास्त्र की पुस्तकों के बराबर के स्तर का नही ।

नये नियम के लिए, पहचानने और संग्रह करने की प्रक्रिया मसीही कलिसिया के प्रथम शताब्दियों में आरम्भ हुई । बहुत जल्दी ही, नये नियम की कुछ पुस्तको को पहचान लिया गया । पौलुस ने लूका के लेखों को पुराने नियम जितना ही अधिकारीक माना (1 तीमुथियुस 5:18) व्यवस्थाविवरण 25:4 और लूका 10:7 भी देखे) पतरस ने पौलुस के लेखों को परमेश्वर का वचन माना (2 पतरस 3:15-16) । नये नियम की कुछ पुस्तको को कलिसियाओं में संचारित किया गया था (कुलुस्सियों 4:16 थिस्सलुनिकिया 5:27) । क्लेमन्ट आफ रोम कम से कम आठ नये नियम की पुस्तकों का उल्लेख करता है ( 95 ईसवी) । इग्नेशीयस आफ एनटीओक लगभग सात पुस्तको को स्वीकार करता है ( 115 ईसवी) पोलीकारप, जो प्रेरित यूहत्रा का शिष्य था, 15 पुस्तकों को मान्यता देता है। ( 108 ईसवी)। बाद में, ईरेनियस 21 पुस्तको का उल्लेख करता है (185 ईसवी)। हिपोलीटेस 22 पुस्तकों को मान्यता देता है (170-235 ईसवी) । नये नियम की जिस पुस्तको को लेकर सबसे अधिक विवाद हुआ वे इब्रानियो, याकूब, 2 पतरस, 2 यूहत्रा, और 3 यूहत्रा है।

पहला ’’ईश्वर प्रेरित पुस्तकों का सग्रह’’ मुराटोरीयन कैनन था, जो 170 ईसवी में संकलित किया गया । इब्रानियों, याकूब और 3 यूहत्रा को छोड़ मुराटोरीयन कैनन में नये नियम की सभी पुस्तके सम्मिलित थी । 363 ईसवी में, कौन्सील लोडीशिया की परिषद ने यह कथन किया कि केवल पुराना नियम (ऐपोकृफा के साथ) और नये नियम की 27 पुस्तको को कलिसियाओं में पढा जाए। हिपो की परिषद (393 ईसवी) और दा कारथेज की परिषद (397 ईसवी ) ने भी 27 पुस्तको के अधिकारीक होने की स्वीकृति दी।

परिषद ने नये नियम की कोई पुस्तक यर्थाथ मे पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित है या नही, इस बात का निर्धारण करने के लिए निम्न सिद्धान्तो का अनुसरण किया था 1) क्या लेखक प्रेरित है या उसका प्रेरित के साथ नजदीकी सम्बन्ध है ? 2) क्या पुस्तक मसीह की देह के द्वारा खुलकर स्वीकार की गई है? 3) क्या पुस्तक में परम्परागत शिक्षा है और उसकी शिक्षा में समाजस्यता है? 4) क्या पुस्तक में उच्च नैतिक ओर आत्मिक मुल्यों । प्रमाण है जो पवित्र आत्मा के कार्य को दर्शाता हो ? फिर, यह स्मरण रखना महत्वपूर्ण है कि कलिसिया ने ईश्वर प्रेरित पुस्तकों का निर्धारण नही किया । किसी पहली कलिसिया के परिषद ने ईश्वर प्रेरित पुस्तको का निर्णय नहीं किया । वह परमेश्वर ही थे, और केवल परमेश्वर ही, जिन्होने तय किया कि कौन सी पुस्तके बाईबल की है । यह विषय केवल परमेश्वर का अपने अनुयायियों को वह प्रदान करने का था जिसे वह पहले ही तय कर चुके थे । मनुष्य के द्वारा बाइबल की पुस्तकों के संकलन करने की प्रक्रिया में त्रृटि थी, परन्तु परमेश्वर, ने अपनी प्रभुसत्ता में, और हमारी अज्ञानता और ढीठपन के बावजूद, प्रराम्भिक कलिसिया को पुस्तको को पहचानने मे सहायता की जो उसके द्वारा प्रेरित थी ।



बाइबल की ईश्वर प्ररित पुस्तको को कैसे और कब एक साथ रखा गया?    
 

क्या बाइबल में त्रृटिया, विरोधाभास, या विसंगतियाँ है?


प्रश्न: क्या बाइबल में त्रृटिया, विरोधाभास, या विसंगतियाँ है?

उत्तर:
यदि हम बाइबल को जैसी दिखाई देती है वैसा ही ले, बिना पहले कोई गलतीयाँ निकालने की राय बनाकर, तो हम उसे एक सामजस्यपूर्ण, एक समान, और तुलनात्मक रूप से असानी से समझ में आने वाली पुस्तक पाएंगे । हाँ, कुछ कठिन अंश भी है । हाँ, ऐसे पद भी है जो एक दूसरे के विपरीत लगते हैं। हमें स्मरण रखना चाहिए कि बाइबल को लगभग 40 अलग-अलग लेखकों द्वारा लगभग 1500 वर्ष के समय काल में लिखा गया था। प्रत्येक लेखक ने अपनी अलग शैली में, अलग दृष्टिकोण से, अलग-अलग पाठकों को, अलग उदेश्य के लिए लिखा। यद्यपि कोई विभिन्नता अवश्य ही विरोधाभास नहीं होती है। यह मात्र एक गलती हो सकती है यदि बिलकुल ऐसा कोई सोच पाने योग्य तरीका नहीं जिससे कि पदों और अंशों का सामाजस्य स्थापित किया जा सके । यदि कोई उत्तर अभी उपलब्ध न हो इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई उत्तर है ही नहीं । बहुतो ने बाइबल मे इतिहास और भूगोल से सम्बंधित तथाकथित गलती पायी है परन्तु बाद में केवल यह ही पाया कि बाइबल सही है जब आगे कोई पुरात्व विज्ञान की खोज में प्रमाण मिलता है।

हम अकसर इस प्रकार के प्रश्न प्राप्त करते हैं कि ‘‘समझाइये कैसे यह पद एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं’’ या ‘‘यहाँ एक बाइबल में गलती है।’’ स्वीकार करते है, कि कुछ प्रश्नों के उत्तर देना जो लोग सामने लाते हैं कठिन होता है। यद्यपि, हमारा मानना यह है कि प्रत्येक माने गए बाइबल के विरोधाभास और गलती के लिए व्यवहार्य और बौद्धिक रूप से विश्वसनीय उत्तर अवश्य है। ऐसी पुस्तके और वेबसाइटस उपलब्ध है जो ‘‘सभी बाइबल में गलतीयों’’ की सूची दिखाती है। अधिकतर लोगों को अपना गोला बारूद बस इन्ही जगहों से प्राप्त होता है, उन्हें स्वयं तथाकथित गलतीयाँ नही मिलती है। ऐसी पुस्तके और वेबसाइटस भी है जो इन सभी तथाकथित गलतियों का खण्डन करती है। सबसे दुख की बात यह है कि अधिकतर लोग जो बाइबल पर वार करते हैं वास्तव में उनकी किसी उत्तर में कोई रूची नहीं होती है। बहुत से ‘‘बाइबल पर वार करने वालो’’ को इन उत्तरों की जानकारी भी होती है, परन्तु वह फिर भी लगातार वही पुराने-छिछले वार बार-बार करते रहते हैं ।

तो, हम क्या करे जब कोई हमारे पास बाइबल की कोई तथाकथित गलती को लेकर आता है ? 1) प्रार्थना पूर्वक धर्मशास्त्र को पढे और देखे यदि कोई साधारण उपाय है। 2)बाइबल की बेहतरीन टीका-टिप्पणीयों की पुस्तकों, ‘‘बाइबल के बचाव’’ की पुस्तके और बाइबल पर शोध की वेबसाइटस का उपयोग करते हुए कुछ शोध करे। 3) पादरियों/कलिसिया के अगवो से कहे यदि वे कोई उपाय दृढ सके । 4) यदि 1) 2) और 3) रास्तो को अपनाने के बाद भी कोई स्पष्ट उत्तर न मिल सके, हम विश्वास करते है कि परमेश्वर का वचन सच्चा है और कोई उपाय अवश्य है बस जिसका हमे अभी तक अहसास नहीं हुआ है (2 तीमुथियुस 2:15, 3:16-17)।



क्या बाइबल में त्रृटिया, विरोधाभास, या विसंगतियाँ है?    
 

इसका क्या अर्थ है कि बाइबल प्ररित है?


प्रश्न: इसका क्या अर्थ है कि बाइबल प्ररित है?

उत्तर:
जब लोग कहते है कि बाइबल प्रेरित है, तो वह इस तथ्य की बात करते हैं कि परमेश्वर ने पवित्रशास्त्र के मानवीय लेखको को इस तरह से प्रेरित किया कि जो कुछ भी उन्होने लिखा वह परमेश्वर का वचन था। पवित्र शास्त्र के सन्दर्भ में प्रेरणा का अर्थ केवल यह है कि ‘‘परमेश्वर द्वारा रचा गया अथवा परमेश्वर ने श्वंास फूंका’’ । प्रेरणा से अर्थ यह है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है और यह बात बाइबल को अन्य सब पुस्तकों से भिन्न बनाती है।

जबकि कई विचार है कि किस सीमा तक बाइबल प्रेरित है, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता है कि बाइबल स्वयं दावा करती है कि बाइबल के प्रत्येक भाग का और प्रत्येक शब्द परमेश्वर की ओर से है (कुरिथियों 2:12-13; 2 तीमुथिसुस 3:16-17)। पवित्र शास्त्र के विचार को प्राय: ‘‘सम्पूर्ण शाब्दीक ’’ प्रेरणा कहा जाता है। जिसका अर्थ है कि केवल विचारों या भावों पर ही नही परन्तु प्रत्येक शब्द प्रेरणा के द्वारा लिखा गया हैं-(शाब्दीक) और पवित्र शास्त्र का प्रत्येक भाग और पवित्र शास्त्र की प्रत्येक विषय-वस्तु परमेश्वर के द्वारा प्रेरित है-(सम्पूर्ण)। कुछ विश्वास करते है कि बाइबल के केवल कुछ भाग ही प्रेरित है, और केवल वे ही विचार और जो धर्म से सम्बन्ध रखते है, परन्तु यह विचार बाइबल के अपने विषय में किए गए दावे से मेल नही खाता है। पूर्ण “सम्पूर्ण शब्दीक प्रेरणा” परमेश्वर के वचन की महत्वपूर्ण विशेषता है।

2 तीमुथियुस 3:16 में स्पष्टता से देखा जा सकता है कि बाइबल किस सीमा तक प्रेरित है, ‘‘सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने और धर्म की शिक्षा के लिए लाभदायक है, ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिए तत्पर हो जाए”। यह वचन हमें बताता है कि सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र परमेश्वर के द्वारा प्रेरित है और यह भी कि वह हमारे लिए लाभदायक है। बाइबल के केवल वे ही भाग प्रेरित नहीं जो धर्मिक शिक्षाओं से सम्बन्धित है, परन्तु उत्पत्ति से लेकर प्रकाशितवाक्य तक प्रत्येक शब्द प्रेरित है। क्योंकि यह परमेश्वर के द्वारा प्रेरित है, इसलिए पवित्रशास्त्र अधिकार रखता है किसी शिक्षा को स्थापित करने के लिए, तथा मनुष्य को सिखाने के लिए पर्याप्त है कि परमेश्वर के साथ कैसे सही सम्बन्ध में रहना चाहिए। बाइबल केवल परमेश्वर के द्वारा प्रेरित होने का ही दावा नही करती है, परन्तु उसमे हम को बदलने और ‘‘पूर्ण’’ बनाने की आलौकिक योग्यता भी है। इस से अधिक हमे और क्या चाहिए?

2 पतरस 1:21 एक अन्य वचन है जो पवित्रशास्त्र की प्रेरणा से सम्बंधित है। यह वचन हमारी यह समझने में सहायता करता है कि परमेश्वर ने यद्यपि अलग-अलग व्यक्तित्वोवाले और लेखन शैली वाले व्यक्तियों का उपयोग किया हो, परन्तु परमेश्वर ने स्वयं उनके द्वारा लिखे गये प्रत्येक शब्द को प्रेरित किया है। यीशु ने स्वयं पवित्र शास्त्र की “सम्पूर्ण शाब्दीक” प्रेरणा होने की पुष्टि की थी जब उसने यह कहा, ‘‘यह न समझो, कि मैं व्यवस्था या भविष्यद्धक्ताओं की पुस्तकों को लोप करने आया हूँ; लोप करने नहीं; परन्तु पुरा करने आया हूँ । क्योंकि मैं तुम से सच कहता हूँ, कि जब तक आकाश ओर पृथ्वी टल न जाएँ, तब तक व्यवस्था से एक मात्रा या एक बिन्दु भी बिना पुरा हुए नहीं टलेगा........’’ (मत्ती 5:17-18)। इन वचनों में, यीशु पवित्रशास्त्र के छोटी से छोटी चीज़ में और एक मामुली से विराम चिन्ह के विषय में भी बिलकुल सही होने को विशेष बल देते हैं, क्योकि यह परमेश्वर का अपना वचन है।

क्योकि पवित्रशास्त्र परमेश्वर का प्रेरित वचन है, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि ये त्रृटिहीन और अधिकारीक भी हैं। परमेश्वर के प्रति सही सोच के द्वारा की हम परमेश्वर माननीय के वचन के प्रति सही सोच रख पाऐगे/सकेगे । क्योंकि परमेश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी और पूर्णता सिद्ध है, इसलिए उसके वचन में भी स्वभाविक रूप से वही विशेषता होगी । जो वचन पवित्रशासस्त्र के प्रेरित होने को स्थापित करते हैं वही उसके त्रृटिहीन और अधिकारीक होने को भी स्थापित करते हैं। बिना किसी संदेह के बाइबल वही है जो वह होने का दावा करती है- मानवता को, इन्कार न किये जा सकने योग्य, अधिकारीक, परमेश्वर का वचन ।



इसका क्या अर्थ है कि बाइबल प्ररित है?    
 

क्या बाइबल आज के लिए अनुरूप है?


प्रश्न: क्या बाइबल आज के लिए अनुरूप है?

उत्तर:
इब्रानियों 4:12 कहता है ‘‘क्योकि परमेश्वर का वचन जीवित और प्रबल और हर एक दो धारी तलवार से भी बहुत चोखा है और प्राण और आत्मा को, और गाँठ-गाँठ और गुदे-गुदे को अलग करके आर-पार छेदता है और मन की भावनाओं और विचारो को जाँचता है”। जबकि बाइबल लगभग 1900 वर्ष पूर्व सम्पूर्ण लिखी जा चुकी थी, परन्तु यह बना रहता है कि यह सही है और आज की लिए भी अनुरूप है। बाइबल उन सब प्रगटिकरण का एक मात्र वास्तविक स्त्रोत है जो परमेश्वर ने अपने विषय मे और उसकी मानव जाति के विषय मे योजना हेतु दिये है।

बाइबल में संसार के विषय में बहुत सी जानकारियाँ हैं जिसकी विज्ञानिक निरिक्षण और शोध में पुष्टि हुई है इन लेखो मे सम्मिलित मे से कुछ लेख लैव्यव्यवस्था 17;11; सभोपदेशक 1:6-7; अय्युब 36;27-29; भजन सहिता 102:25-27 और कुलुसीयो 1:16-17 है। जैसे मनुष्य जाति के छुटकारे के लिए परमेश्वर की योजना की बाइबल की कहानी प्रगट की गई, बहुत से अलग-अलग चरित्रों का सुस्पष्टता से वर्णन किया गया। इन विवरणों में- बाइबल मनुष्य के व्यवहार और प्रवृतियों के बारें में बहुत सी जानकारियां उपलब्ध कराती है । हमारे अपने दिन प्रतिदिन के अनुभव दिखाते हैं कि यह जानकारिया मानव की दशा के बारे में किसी भी मनोविज्ञान की पाठय पुस्तक से अधिक सही और विवरणात्मक है। बहुत से बाइबल में लिखे हुए ऐतिहासिक तथ्यों की पुष्टि बाइबल से बाहर के स्त्रोतो द्वारा हुई है। ऐतिहासिक शोघ अकसर एक ही घटना के बाइबल के विवरणों और बाइबल से बाहर के स्त्रोतो के विवरणों में बहुत सी समानता दिखाते है ।

यद्यपि बाइबल कोई इतिहास की पुस्तक कोई मनोविज्ञान का लेख, या कोई विज्ञानिक लेखा-जोखा नहीं है। बाइबल वह विवरण है जो परमेश्वर ने हमें अपने विषय मे दिया है कि वह कौन है, और जो मानवजाति के लिए उसकी इच्छाए और योजनाए है। इस प्रगटीकरण का सबसे विशेश भाग हमारा पाप के कारण परमेश्वर से अलग हो जाना और परमेश्वर का अपने पुत्र यीशु मसीह के क्रूस पर बलिदान के द्वारा मेल-संगति को पुन: स्थापित करने के उपाय की कहानी है। हमारी कभी छुटकारा किये जाने की आवश्यकता नहीं बदलती है। न ही परमेश्वर की अपने साथ हमारा मेल करने की इच्छा ।

बाइबल में बहुत सी सही ओर संबद्ध जानकारियाँ हैं । बाइबल का सबसे महत्वपूर्ण संदेश-छुटकारा- नित्य सम्पूर्ण मानव जाति पर लागू होता है। परमेश्वर का वचन कभी भी पुराना नहीं होता है, न उसकी जगह कभी भी कुछ और ले सकता है और न ही उसमें कभी भी कुछ बेहतर किया जा सकता है। सस्कृतियाँ बदलती है नियम कानून बदलते हैं, पीढीयाँ आती और जाती है, परन्तु परमेश्वर का वचन आज के लिए भी उतना ही अनुरूप है जितना कि वह पहली बार लिखे जाने के समय था। आवश्यक नही की सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र आज भी हम पर निश्चित रूप से लागू होता हो परन्तु परमेश्वर के हर एक वचनों में जो सच्चाई है उसे हम आज भी अपने जीवनों में लागू कर सकते हैं ओर करनी चहिए ।



क्या बाइबल आज के लिए अनुरूप है?    
 

बाईबल के अध्यन का सही ढंग क्या है?


प्रश्न: बाईबल के अध्यन का सही ढंग क्या है?

उत्तर:
इस जीवन में धर्मशास्त्र के अर्थ को निर्धारित करना एक विश्वासी का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। परमेश्वर नहीं कहते कि हम बाइबल को पढे। हमें इसका अध्यन करना चाहिए और इसका सही रीति से उपयोग करना चाहिए है (2 तीमुथियुस 2:15) । पवित्रशास्त्र का अध्ययन बड़ा परिश्रम का कार्य है। धर्मशास्त्र को जल्दबाजी में और थोडा-बहुत पढना कभी-कभी बहुत गलत निष्कर्ष दे सकता है । इसलिए धर्मशास्त्र के सही अर्थ को निर्धारित करने के लिए कई सिद्धान्तों को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।

पहले, बाइबल के अध्यनकर्ता को पवित्र आत्मा से समझ प्रदान करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि यह उनके कार्यो में से एक है। ‘‘परन्तु जब वह अर्थात सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हे सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बाते तुम्हें बताएगा (यूहाा 16:13) । जिस रीति से पवित्र आत्मा ने प्रेरितो को नये नियम के लेखन में मार्ग दर्शन किया, उस ही रीति से वह हमारी भी धर्मशास्त्र को समझने में मार्गदर्शन करता है। स्मरण रखे, बाइबल परमेश्वर की पुस्तक है, हमे उनसे पुछने की आवश्यकता है कि इसका क्या अर्थ है। यदि आप एक मसीह जन हैं, धर्मशास्त्र के लेखक पवित्र आत्मा आप में वास करता हैं और वह चाहता है कि आप जो उसने लिखा है समझ सके।

दूसरा, हमे वचन को उसके साथ के वचनों के बीच से नहीं निकालना चाहिए और सन्दर्भ के बाहर वचन के अर्थ को निर्धारित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। सन्दर्भ को समझने के लिए अध्यायों को पढना चाहिए । जबकि सम्पूर्ण धर्मशास्त्र परमेश्वर की ओर से है ( 2 तीमुथियुस 3:16; 2 पतरस 1:21),परन्तु परमेश्वर ने इसके लेखन के लिए मनुष्यों का उपयोग किया । इन पवित्र जनो के मन में कोई विषय, लिखने का एक उदेश्य और कोई विशेष विषय होता था। जिसे वह सम्बोधित कर रहे थे। हम बाइबल की जिस पुस्तक को पढ रहे होते हैं उसकी पृष्ठभुमि को पढना चाहिए यह ताकि ज्ञात हो कि किसने पुस्तक को लिखा है, किन लोगो के लिए लिखी गई थी, और कब लिखी गई थी। हमको ध्यान रखना है कि हम लेख को स्वयं को स्पष्ट करने को मौका दे। कभी-कभी लोग वचनो के साथ अपने ही अर्थ जोड़ देते हैं जिस से उनको अपनी ही मनचाही व्याख्या मिल सके।

तीसरा, हमे बाइबल का अध्यन पूर्णत: अपने आप ही नहीं करना चाहिए। यह सोचना अभिमान की बात होगी कि हम अन्य व्यक्ति जिन्होने बाइबल का अध्ययन किया हो उनके जीवनभर की साहित्यिक कृति से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । कुछ लोग, गलती में, बाइबल के अध्यन के लिए इस विचार के साथ आते है कि वे केवल पवित्र आत्मा पर निर्भर करेंगे और वे धर्मशास्त्र की सभी गुप्त सच्चाईयों को जान लेंगे। मसीह ने, पवित्र आत्मा के दिये जाने के द्वारा, मसीह की देह में लोगों को आत्मिक वरदान दिये हैं । इनमें से एक आत्मिक वरदान सिखाने का है (इफिसियो 4:11-12; 1 कुरिन्थियो 12:28) । हमारी सहायता के लिए यह शिक्षक परमेश्वर के द्वारा हमे दिये गए होते हैं । अन्य विश्वासियों के साथ बाइबल का अध्यन करना हमेशा समझदारी की बात होती है जिस के द्वारा हम परमेश्वर के वचन की सच्चाई को समझने और उपयोग करने में एक दूसरे की सहायता कर सकें ।

संक्षेप में, बाइबल के अध्यन करने का क्या सही तरीका है? पहले, प्रार्थना और नम्रता के साथ, हमे अवश्य समझ प्राप्त करने के लिए पवित्र आत्मा पर निर्भर होना है। दूसरा, हमे हमेशा सन्दर्भ में धर्मशास्त्र का अध्यन करना चाहिए, इस बात को जानते हुए कि बाईबल स्वयं अपने आपको स्पष्ट करती है। तीसरा, हमें अन्य मसीही लोगो के पूर्व और वर्तमान के प्रयासों का आदर करना चाहिए, जिन्होने बाइबल का सही ढंग से अध्यन करने का प्रयत्न किया है। स्मरण रखे, परमेश्वर बाइबल के लेखक है, और वह चाहते हैं कि हम इसे समझ सकें ।



बाईबल के अध्यन का सही ढंग क्या है?    
 

हमे बाइबल क्यो पढना और अध्यन करना चाहिए?


प्रश्न: हमे बाइबल क्यो पढना और अध्यन करना चाहिए?

उत्तर:
हमे बाइबल पढना और अध्यन करना चाहिए क्योंकि यह हमारे लिए परमेश्वर का वचन है। बाइबल शाब्दिक रूप से ‘‘परमेश्वर की प्रेरणा से है’’ (2 तीमुथियुस 3:16)। अन्य शब्दों में यह हमारे लिए परमेश्वर के वचन है। ऐसे बहुत से प्रश्न है जो दार्शीनिक पुछा करते हैं जिनका उत्तर परमेश्वर हमारे लिए पवित्रशास्त्र में देते हैं । जीवन का उदेश्य क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? क्या मृत्यु के बाद जीवन है? कैसे मैं स्वर्ग में जा सकता हूँ? क्यों दुनियां बुराई से भरी हुई है? मुझे अच्छा करने में संघर्ष क्यों करना पडता है? इन ‘‘बडे’’ प्रश्नों के अतिरिक्त, बाइबल इन विषयों पर भी बाइबल बहुत सी व्यवहारिक सलाह देती है जैसे कि मुझे अपने जीवन साथी में क्या देखना चाहिए? कैसे मैं सफल विवाहिक जीवन व्यतीत कर सकता हूँ ? कैसे मै अच्छा मित्र बन सकता हूँ? कैसे मैं एक अच्छा अभिभावक बन सकता हूँ ? सफलता क्या है और कैसे मैं उसे प्राप्त कर सकता हूँ ? कैसे मैं बदल सकता हूँ? वास्तव में जीवन में क्या मायने रखता है? मुझे कैसे जीना चाहिए कि जब मैं पीछे देखु तो मुझे अफसोस न हो? कैसे मैं जीवन की अन्यायपूर्ण परिस्थितयों और बुरी घटनाओं को जय प्राप्त करते हुए सम्भाल सकता हूँ ?

हमे बाइबल पढना और अध्यन करना चाहिए क्योकि यह पूर्णतया विश्वासयोग्य और त्रृटिहीन है। बाईबल ‘‘पवित्र’’ कही जाने वाली पुस्तकों के मध्य में इस प्रकार से भिन्न है कि यह मात्र नैतिक शिक्षा ही नहीं देती और कहती है कि, ‘‘मुझ पर विश्वास करे’’ । बल्कि, हमारे पास इसकी जाँच-परख कर सकने की योग्यता है जिससे कि इसकी सैकडों विस्तृत भविष्यवाणीयों को जो यह करती है जाँच सके, इसमे लिखे हुए ऐतिहासिक वृत्तान्त को परख सके, और इस से सम्बंधित विज्ञानिक तथ्यों की जाँच सके । जो कहते है कि बाइबल में गलतियाँ है उनके कान सच्चाई के लिए बन्द है। यीशु ने एक बार कहा कि क्या कहना सहज है, ‘‘तेरे पाप क्षमा हुए, या ‘‘उठ, अपना बिस्तर उठा और चल फिर’’। फिर उसने साबित किया कि उसके पास पाप क्षमा करने की योग्यता है (ऐसा कुछ जो हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते है) लकबे के मारे को चंगा किया (ऐसा कुछ जो उसके आस-पास वाले अपनी आँखों से जाँच-परख सकते है) । इस रीति से, हमको आश्वासन दिया गया है कि परमेश्वर का वचन सत्य है जब यह आत्मिक विषयों पर बात करता है जिसे हम अपनी इन्द्रियों द्वारा जाँच नहीं सकते हैं, तो जिसे हम जाँच सकते हैं उन विषयों में अपने आप को सच्चा दिखाता है, जैसे कि ऐतिहासिक रूप से ही होना, विज्ञानिक रूप से सही होना और भविष्यवाणियों का सही होना ।

हमे बाइबल को पढना और अध्यन करना चाहिए क्योंकि परमेश्वर नहीं बदलता और क्योंकि मानवजाति का स्वभाव नहीं बदलता; यह हमारे लिए उतनी ही अनुरूप है जितनी कि जब यह लिखी गई थी। जब कि तकनीकी बदलती है, मानवजाति का स्वभाव और इच्छाए नहीं बदलती। जब हम बाइबल के इतिहास के पन्नो को पढते है, तो हम पाते हैं, कि चाहे हम एक के दूसरे से सम्बन्धों की बात करे या समाजो की, ‘‘इस सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं है’’ (सभोपदेशक 1:9) । और जबकि सम्पर्ण मानवजाति हर एक गलत स्थानों में प्रेम और सन्तुष्टि ढुढना जारी रखे है, परमेश्वर- हमारे भले और अनुग्रहकारी सृष्टिकर्ता - हमे बताते हैं कि क्या हमको स्थाई आनन्द देगा । उसका प्रगट वचन, बाइबल, इतना महत्वपूर्ण है कि यीशु ने इस के लिए कहा कि, ‘‘मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु परमेश्वर के मुँह से निकले हुए प्रत्येक वचन से जीवित रहेगा’’ (मत्ती 4:4) दूसरे शब्दों में, यदि हम जीवन को सम्पूर्ण जीना चाहते हैं, जैसी परमेश्वर की मंशा थी, हमे अवश्य परमेश्वर के लिखे गए शब्दों को सुनना और उन पर ध्यान देना चाहिए ।

हमको बाइबल पढना और अध्यन करना चाहिए क्योकि बहुत ही अधिक गलत शिक्षाए भी अस्तिव मे है। बाइबल हमे एक नापने की छडी प्रदान करती है जिससे हम सच और गलत में भेद कर सके। यह हमे बताती है कि परमेश्वर कैसे है। परमेंश्वर का गलत विचार होना किसी बूत और झूठे ईश्वर की उपासना करने लगते है। हम किसी ऐसी चीज़ की उपासना कर रहे होते हैं जैसा वह नहीं है । बाइबल हमें बताती है कि कोई कैसे वास्तव में स्वर्ग में जा सकता है, और ऐसा अच्छा होने से नहीं और न बपतिस्मा लेने से और न ऐसा कोई अन्य चीज़ जो हम करते हैं उसके द्वारा हो सकता है (यूहाा 14:6; इफिसियो 2:1-10; यशायाह 53:6; रोमियो 3:10-18, 5:8, 6:23, 10:9-13)। इसी के अनुसार, परमेश्वर का वचन हमे दिखाता है कि परमेश्वर हमसे कितना प्रेम करते हैं (रोमियो 5:6-8, यूहन्ना3:16)। और यह जानने से हम में भी उस से प्रेम करने का प्रभाव होता है (यूहन्ना 4:19)।

बाइबल हमे परमेश्वर की सेवा करने के लिए तैयार करती है ( 2 तीमुथियुस 3:17; इफिसियो 6:17; इब्रानिया 4:12) यह हमारी सहायता करती है यह जानने में कि हम कैसे अपने पापों से और उनके अंत में होने वाले परिणामों से बच सकते हैं (2 तीमुथियुस 3:15)। परमेश्वर के वचन पर मनन करने और उसकी शिक्षाओं को मानने से जीवन में सफलता मिलती है (यहोशु 1:18; याकुब 1:25) । परमेश्वर का वचन हमारे जीवनों में जो पाप हैं उसे देख पाने में और उससे छुटकारा प्राप्त करने में सहायता करता है (भजन संहित 119:9,11)। यह हमारे जीवन में मार्ग दर्शन भी करता है, और हम को हमारे शिक्षको से भी अधिक बुद्धिमान बनाता है (भजन संहिता 32:8; 119:99; नीतिवचन 1:6)। बाइबल हमे अपने जीवन मे उन वस्तुओं पर वर्ष गवाने से बचाती है जिनका अधिक मायने नहीं है और न हमेशा बनी रहने वाली है (मत्ती 7:24-27) ।

बाइबल को पढना और अध्यन करना हमको आकर्षक ‘‘चारे’’ से आगे पापमय प्रलोभन मे निहित पीडादायक काँटे को देख पाने में सहायता करता है, जिससे कि हम दूसरों की गलतीयों से सिख सके न कि उन्हे स्वयं दोहराए। अनुभव बडा शिक्षक है, परन्तु जब पाप से सिखने की बात आती है, तो यह भयंकर कठोर शिक्षक होता है। इसलिए यह बहुत अधिक अच्छा होता है कि हम दूसरो की गलतीयों से सीख ले । ऐसे बहुत से बाइबल चरित्र हैं जिनसे हम सीख ले सकते हैं। जिन में से कुछ अपने जीवन के अलग-अलग समयों में दोनो सक्रात्मक और नकारात्मक प्रकार के अनुसरण के पात्र हो सकते है। उदाहरण के लिए, दाऊद, उसका गोलीयत को पराजित करना, हमे सीखाता है कि परमेश्वर उन सब चीजो से बडा है जिस से वह हमको सामना करने के लिए कहता है (1 शमूएल 17), जबकि उसका बैथशिबा के साथ व्यभिचार करने की परीक्षा में पडना प्रगट करता है कि कुछ समय के पापमय आनन्द के दुष्परिणाम कितने लम्बे समय तक बने रह सकते हैं और भयानक हो सकते हैं (2 शमूएल 11)।

बाइबल वह पुस्तक जो मात्र पढने के लिए ही नहीं है। यह पुस्तक अध्यन करने के लिए भी है जिससे की इस जीवन में लागू किया जा सके। अन्यथा, यह भोजनवस्तु को बिना चबाएं निगल लेना और फिर दुबारा बाहर उगल देना जैसा होगा - जिससे कुछ भी पोषण प्राप्त नहीं होता । बाईबल परमेश्वर का वचन है। इसलिए, यह प्रकृति के नियमों के समान ही हम पर लागू होता है। हम इस की उपेक्षा कर सकते हैं, परन्तु ऐसा करने से हम अपनी ही हानि करते हैं, वैसे ही जैसे यदि हम गुरूतवाकर्षण की उपेक्षा करे। बाईबल के अध्ययन की हम सोने के खनन से भी तुलना कर सकते हैं । यदि हम थोडा प्रयास करे और मात्र ‘‘नदी के छोटे पत्थरों में से छाने’’ तो हमे केवल थोडी ही सोने की घुल मिलेगी। परन्तु जब हम और अधिक प्रयास करते हैं, और उसमें खोदते हैं, तो हमे हमारे प्रयास का और अधिक प्रतिफल मिलता है।



हमे बाइबल क्यो पढना और अध्यन करना चाहिए?