यशायाह की बुलाहट
१ जिस वर्ष उज्जियाह राजा मरा, मैंने प्रभु को बहुत ही ऊँचे सिंहासन पर विराजमान देखा; और उसके वस्त्र के घेर से मन्दिर भर गया। (प्रका. 4:2,6, मत्ती 25:3, प्रका. 7:10) २ उससे ऊँचे पर साराप दिखाई दिए; उनके छः-छः पंख थे; दो पंखों से वे अपने मुँह को ढाँपे थे* और दो से अपने पाँवों को, और दो से उड़ रहे थे।
३ और वे एक दूसरे से पुकार-पुकारकर कह रहे थे:
“सेनाओं का यहोवा पवित्र, पवित्र, पवित्र है; सारी पृथ्वी उसके तेज से भरपूर है।” (प्रका. 4:8, प्रका. 15:8) ४ और पुकारनेवाले के शब्द से डेवढ़ियों की नींवें डोल उठी, और भवन धुएँ से भर गया। ५ तब मैंने कहा,
“हाय! हाय*! मैं नाश हुआ; क्योंकि मैं अशुद्ध होंठवाला मनुष्य हूँ,
और अशुद्ध होंठवाले मनुष्यों के बीच में रहता हूँ;
क्योंकि मैंने सेनाओं के यहोवा महाराजाधिराज को अपनी आँखों से देखा है!”
६ तब एक साराप हाथ में अंगारा लिए हुए, जिसे उसने चिमटे से वेदी पर से उठा लिया था, मेरे पास उड़कर आया। ७ उसने उससे मेरे मुँह को छूकर कहा,
“देख, इसने तेरे होंठों को छू लिया है, इसलिए तेरा अधर्म दूर हो गया और तेरे पाप क्षमा हो गए।” ८ तब मैंने प्रभु का यह वचन सुना, “मैं किस को भेजूँ, और हमारी ओर से कौन जाएगा?” तब मैंने कहा, “मैं यहाँ हूँ! मुझे भेज।” ९ उसने कहा,
“जा, और इन लोगों से कह,
'सुनते ही रहो, परन्तु न समझो; देखते ही रहो, परन्तु न बूझो।'
१० तू इन लोगों के मन को मोटे* और उनके कानों को भारी कर, और उनकी आँखों को बन्द कर;
ऐसा न हो कि वे आँखों से देखें, और कानों से सुनें, और मन से बूझें, और मन फिराएँ और चंगे हो जाएँ।” (मत्ती 13:15, यूह. 12:40, प्रेरि. 28:26,27, रोम. 11:8)
११ तब मैंने पूछा, “हे प्रभु कब तक?” उसने कहा,
“जब तक नगर न उजड़े और उनमें कोई रह न जाए,
और घरों में कोई मनुष्य न रह जाए, और देश उजाड़ और सुनसान हो जाए,
१२ और यहोवा मनुष्यों को उसमें से दूर कर दे, और देश के बहुत से स्थान निर्जन हो जाएँ।
१३ चाहे उसके निवासियों का दसवाँ अंश भी रह जाए, तो भी वह नाश किया जाएगा,
परन्तु जैसे छोटे या बड़े बांज वृक्ष को काट डालने पर भी उसका ठूँठ बना रहता है,
वैसे ही पवित्र वंश उसका ठूँठ ठहरेगा।”